संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

आचार्य महाप्रज्ञ 
 
बंध-मोक्षवाद
 
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
 
(9) शोधिः ऋजुकभूतस्य, धर्मः शुद्धस्य निष्ठति।
निर्वाणं परम याति, धृतसिक्त इवानलः।।
महाभारत का शांति पर्व भी यही गीत गाता हैµ
ये च मूढ़तमा लोके, ये च बुद्धेः परं गताः।
त एव सुखमेधन्ते, मध्यमः क्लिश्यते जनः।।
‘संसार में दो ही प्रकार के व्यक्ति आनंद का अनुभव कर सकते हैं, एक अज्ञानी और दूसरा परम ज्ञानी। बीच वाले मनुष्य तो केवल दुःख पाते हैं।
चेतना सरल है। असरलता उसमें बाहर से प्रविष्ट हो गई। सरल होने के लिए करने की कुछ जरूरत नहीं है। जरूरत है असरलता (कपट) का प्रवेश होने न पाए। बाहर का मुखौटा हटा कि स्वयं का चेहरा उद्दीप्त हुआ (उभर आया)। स्वभाव के लिए कुछ और करना, उसे जटिल बनाने जैसा होगा। बस, उसके लिए अप्रमत्तµसजग रहना पर्याप्त है कि विभाव आपके अंदर न घुसे। महावीर कहते हैंµ‘जैसे ही आप स्वयं के भीतर प्रविष्ट हुए, सरल बने कि घृतसिक्त अग्नि की भाँति परम तेजस्विता को उपलब्ध हो जाएँगे।’
स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा हैµ‘अनेक जन्मों के पुण्य से मनुष्य को सरल और उदार भाव प्राप्त होता है।
मनुष्य सरल स्वभाव वाला हुए बिना ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता।
 
(10) नियत्या नाम स×जाते, परिपाके भवस्थितेः।
मोहकं क्षपयन् कर्म, विमर्शं लाभतेऽमलम्।।
नियति के द्वारा भवस्थिति के पकने पर जीव मोह-कर्म का नाश करता हुआ विशद विचारणा को प्राप्त होता है।
 
(11) तत्किं नाम भवेत् कर्म, येनाऽहं स्यान्न दुःखभाक्।
जिज्ञासा जायते तीव्रा, ततो मार्गो विमृश्यते।।
वह कौन-सा कर्म है, जिसका आचरण कर मैं दुःखी न बनूँ? मनुष्य में ऐसी तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न होती है। उसके पश्चात् वह मार्ग की खोज करता है।
जैन दर्शन दुःख-मुक्ति का दर्शन है। जैन मनीषियों ने सारे संसार को दुःख मय देखा और यहाँ सारे संयोग-वियोगों को दुःख परंपरा को तीव्र करने वाला माना। यहीं से जैन साधना-पद्धति का प्रारंभ हुआ।
भगवान् महावीर ने कहाµ
जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति पाणिणो।।
µ जन्म दुःख है। बुढ़ापा दुःख है। रोग दुःख है। मरण दुःख है। सारा संसार दुःखमय है जहाँ प्रत्येक प्राणी दुःख पा रहा है।
इस दुःखवादी दृष्टिकोण ने जैन साधक को पग-पग पर सचेष्ट रहने की प्रेरणा दी।
जैन दर्शन के चार आधार-बिंदु हैंµ(1) दुःख है, (2) दुःख का कारण है, (3) मोक्ष है, (4) मोक्ष का कारण है।
इन चार सत्यों के आधार पर सारा दर्शन खड़ा हुआ है।
साधक साधना-जीवन में प्रवेश करते ही पूछता हैµऐसा कौन-सा कार्य है जो दुःख मुक्त कर सकता है? दुःख से मुक्त होने की भावना ज्यों-ज्यों तीव्र होती है साधक का जीवन उतना ही प्रकाशमय होता जाता है।
(क्रमशः)