उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

श्रावक श्री बहादुरमलजी भंडारी

मघवागणी ने भंडारीजी की प्रार्थना को स्वीकार किया और सं0 1942 का चातुर्मास करने जोधपुर पधार गए। भंडारजी ने अपनी शारीरिक निर्बलता को उपेक्षित करते हुए पूरे तन-मन से उस अवसर का आध्यात्मिक लाभ उठाने का प्रयास किया। जिस उत्साह और आग्रह से उन्होंने चातुर्मास प्राप्त किया था, वैसा ही वह उनके धार्मिक सहयोग में काम भी लगा। भाद्रपद कृष्णा नवमी की रात्रि को अचानक उनके शरीर का तापमान बढ़ गया। उससे उन्हें शरीर में अत्यंत निर्बलता अनुभव होने लगी। साधुओं के स्थान पर जाकर दर्शन करने का मन होते हुए भी वे जाने की स्थिति में नहीं रहे। अंत में विवश होकर उन्होंने मघवागणी को दर्शन देने के लिए प्रार्थना करवाई। सूर्योदय होने के साथ ही मघवागणी उनके घर पधारे और दर्शन दिए। बस, वे उनके अंतिम दर्शन ही सिद्ध हुए। इधर मंगलपाठ सुनाकर, आचार्यश्री वापस पधारे और उधर उन्होंने प्राण त्याग दिए। लोगों ने कहाµ‘वे उत्कृष्ट भक्तिमान् श्रावक थे वैसा ही उन्हें अंतिम समय में गुरु-दर्शन का उत्कृष्ट संयोग भी प्राप्त हुआ।’ सत्तर वर्ष के उस कर्मठ जीवन का अंतिम दिन सं0 1942 भाद्रपद कृष्णा दशमी था।

श्रावक श्री रूपचंदजी सेठिया

सुजानगढ़-निवासी सुप्रसिद्ध श्रावक रूपचंदजी सेठिया का जीवनकाल सं0 1923 ज्येष्ठ शुक्ला दशमी से सं0 1983 फाल्गुन शुक्ला सप्तमी तक का था। वे अपने पिता रतनचंदजी के तीन पुत्रों में सबसे छोटे थे। उनका जीवन सुयोग्य श्रावक का जीवन था। वे अपने छोटे-बड़े सभी कार्यों में अधिक से अधिक अहिंसा का प्रयोग करते, यहाँ तक कि मानसिक हिंसा से भी वे यथासंभव बचते। एक धनी और शहर के प्रमुख व्यक्ति होते हुए भी उन्होंने अपना जीवन संयमशील बनाया। सप्तम आचार्य डालगणी की उन पर विशेष कृपा थी। उन्होंने जब अपने पीछे शासन का भार संभालने के लिए नियुक्ति करने की बात सोची, तब पहले श्रावक रूपचंदजी से विचार-विमर्श किया। अन्य किसी को जब अंदर जाने का निषेध होता था उस समय भी यदि रूपचंदजी आते तो उनके लिए निषेध नहीं रहता था। कारण यह था कि वे एक पूर्ण विश्वस्त और शासन-हितैषी श्रावक थे।
गृहस्थ होते हुए भी वे साधुवत् थे। लोग उन्हें ‘गृहस्थ साधु’ कहा करते थे। एक बार बीकानेर का कोई नया व्यक्ति आचार्यश्री के दर्शन करने के लिए आया। दर्शन कर लेने के पश्चात् उसने पास में बैठे हुए श्रीचंदजी गधैया से पूछा कि श्रीजी महाराज के दर्शन तो कर लिए हैं, अब तुम्हारे में जो एक ‘गृहस्थ साधु’ है, उसे दिखलाओ। गधैयाजी उसकी मनोकामना को तत्काल समझ गए। उन्होंने उसे श्रावक रूपचंदजी से मिलाया, जो कि गृहस्थ होने पर भी वस्तुतः साधु जीवन के अधिकाधिक निकट पहुँचने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहते थे।
श्रावक रूपचंदजी का समग्र जीवन एक त्यागमय जीवन की ज्वलंत कहानी था। उनके जीवन की छोटी-बड़ी हर क्रिया त्याग की प्रकाश धारा से नहाई हुई थी। बालवय से ही वे धर्मानुरागी थे। यद्यपि तत्कालीन प्रथा अनुसार उनका विवाह दस वर्ष की बाल्यावस्था में कर दिया गया था, फिर भी उसमें उनकी अत्यासक्ति कभी नहीं हुई। जब वे बत्तीस वर्ष की पूर्ण युवावस्था में थे तभी पति-पत्नी दोनों ने साधना के रूप में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन प्रारंभ कर दिया। पाँच वर्षों तक लगातार साधना कर लेने के पश्चात् सं0 1960 में जब आचार्य डालगणी का चातुर्मास सुजानगढ़ में हुआ तब उनके पास प्रकट रूप में जीवनपर्यन्त के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य का संकल्प कर लिया।
चलने-फिरने तथा खाने-पीने से लेकर जीवन का हर व्यवहार संयमित था। हर कार्य में वे पूर्ण विवेक रखते। वे प्रायः नीची दृष्टि किए हुए देखकर चलते। शौच के लिए प्रायः बाहर अचित्त भूमि में जाते। लघुशंका की निवृत्ति भी अचित तथा सूखी भूमि देखकर करते। भोजन में जूठा नहीं छोड़ते। कोई कितना ही स्वादिष्ट पदार्थ क्यों न होता तथा कोई उसके लिए उनसे कितना ही आग्रह क्यों न करता, पर वे अपनी मात्रा से अधिक बिलकुल नहीं लेते। यदि वे स्वयं किसी को परोसते तो जताए बिना अधिक नहीं डालते। (क्रमशः)