मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

आचार्य तुलसी
हमारा जगत् संक्रमणशील है। इसमें वस्तु एक देश से दूसरे देश में संक्रांत होती है और उससे दूसरे द्रव्य प्रभावित होते हैं। सौर जगत् से जो परमाणु प्रवाह आता है, उससे मनुष्य प्रभावित होता है। देश और काल ये दोनों माध्यम उसके प्रभावित होने में योग देते हैं। जैसे विभिन्न महीनों में आने वाला और जगत् का प्रवाह मनुष्य के विभिन्न अंगों को प्रभावित करता है, वैसे ही विभिन्न दिशाओं से आने वाला सौर प्रवाह भी मनुष्य के विभिन्न अंगों और चैतन्य केंद्रों पर भिन्न-भिन्न प्रभाव डालता है। ध्यान के लिए पूर्व और उत्तर दिशा से आने वाले सौर जगत् के तत्त्व-प्रवाह अधिक अनुकूल होते हैं। इसीलिए ध्याता को पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुँह कर ध्यान करने का निर्देश दिया गया है।
खड़े होकर ध्यान करना कठिन कार्य है। बैठकर ध्यान करना उससे सरल है। इसमें शारीरिक तनाव का विसर्जन अधिक सरलता से किया जा सकता है। बैठकर किए जाने वाले पद्मासन आदि अनेक आसन हैं। वे सभी आसन ध्यान के लिए विहित हैं। किंतु वैसे आसनों में ध्यान करना विहित नहीं है जो शरीर के लिए कष्टकर हों। इस विषय में कुछ आचार्यों का चिंतन बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने लिखा है कि वर्तमान में शरीर का संहनन बहुत दृढ़ नहीं है। इसलिए ध्यान के लिए पद्मासन और कायोत्सर्गासन-इन दो ही आसनों का प्रयोग करना चाहिए। यह कोई नियम नहीं है किंतु वर्तमान की स्थिति का विवेक है।
ध्यान सोकर भी किया जा सकता है। उसका व्यवहार सामान्यतः प्रचलित नहीं है किंतु सोकर ध्यान न करना, ऐसा नियम भी नहीं है। अभ्यासकाल में आसन आदि पर अधिक ध्यान देना आवश्यक होता है। अभ्यास के परिपक्व होने पर चाहे जिस मुद्रा या आसन में ध्यान किया जा सकता है।
(7) ग्रामागार-शून्यगृह-श्मशान-गुहोएवन-पर्वत-तरुमूल-पुलिनानि ध्यानस्थलानि।।
(8) भूपीठ-शिलाकाष्ठपट्टान्युपवेशनस्थानानि।।
(7) गाँव, घर, शून्यगृह, श्मशान, गुफा, उपवन, पर्वत, वृक्षमूल, नदी का पार्श्व भाग आदि ध्यान करने के लिए उपयुक्त स्थल हैं।
(8) भूपीठ, शिलापट्ट-ये बैठने के लिए उपयुक्त आसन हैं। ध्यान के आसन पहले बताए जा चुके हैं।
 
ध्यान-स्थल
ध्यान कहाँ किया जाए? इस प्रश्न का भी अपने आपमें महत्त्व है। वस्तु का जैसे महत्त्व होता है, वैसे ही उसके क्षेत्र (आधारस्थल) का भी महत्त्व होता है। ध्यान के लिए सर्वाधिक समुचित क्षेत्र वही है, जहाँ कोलाहल न हो। एकाग्र होने में बाधा डालने वाली कोई भी वस्तु न हो। शून्यगृह, श्मशान आदि स्थलों का चुनाव इसी दृष्टि से किया गया है। किंतु ध्यान एकांत स्थलों में ही किया जाए, यह अनिवार्य नहीं है। वह गाँव, जनाकुल घर में भी किया जा सकता है। उपवन आदि का चुनाव इसलिए किया गया कि उसमें पर्याप्त प्राणवायु प्राप्त हो सके।
स्थल के संबंध में कोई निश्चित रेखा नहीं खींची जा सकती, किंतु इस विषय में इतना ही निर्देश किया जा सकता है कि वह स्वच्छ, नीरव, प्रशस्त और प्राणवायु से परिपूर्ण होना चाहिए। स्थल के विषय में एक विशेष बात ध्यान देने योग्य है। वह यह है कि ध्यान एक निश्चित स्थान में किया जाए तो उसकी सिद्धि शीघ्र होती है।
दूसरी बात यह है कि विचार संक्रमणशील होते हैं। एक मनुष्य के विचारों का दूसरे मनुष्य के विचारों पर असर होता है। बुरे विचारों का संक्रमण न हो, इस दृष्टि से ध्यान-स्थल का एकांत होना आवश्यक है।
 
ध्यानोचित आसन
ध्यानकाल में बैठने के आसनों का भी बहुत महत्त्व है। मृत्तिका, शिलाखंड और काष्ठ-ये शरीर के तापमान को संतुलित और स्थिर बनाए रखते हैं और विजातीय तत्त्वों के प्रभाव से बचाते हैं, इसलिए इनका विशेष महत्त्व है। सात्त्विक वस्त्रासन भी ध्यानकाल में उपयोग में लाए जाते हैं।
(9) सालम्बन-निरालम्बनभेदाद् ध्यानं द्विधा।।
(10) पिंडस्थ-पदस्थ-रूपस्थ-रूपातीतभेदादाद्यं चतुर्धा।।
(11) शारीरालम्बि पिंडस्थम्।।
(12) शिरो-भ्रू-तालु-ललाट-मुख-नयन-श्रवण-नासाग्र-हृदय-नाभ्यादि शारीरालम्बनानि।।
(13) धारणालम्बनं च।।
(14) प्रेक्षा वा।।
(15) ध्येये चित्तस्य स्थिरबंधो धारणा।
(16) पार्थिवी-आग्नेयी-मारुती-वारुणीति चतुर्धा।।
(17) स्वाधारभूतानां स्थानानां वृहदाकारस्य वैशद्यस्य च विमर्शः।।
(18) तत्रस्थस्य निजात्मनः सर्वसामर्थ्योद्भावनं पार्थिवी।।
(19) नाभिकमलस्य प्रज्वलनेन अशेषदोषदाहचिन्तनमाग्नेयी।।
(20) दग्धमलापनयनाय चिंतनं मारुती।।
(21) महामेघेन तदृभस्मप्रक्षालनाय चिंतनं वारुणी।।
(22) श्रौतालंबि पदस्थम्।।
(23) संस्थानालंबि रूपस्थम्।।
(24) सर्वमलापगतज्योतिर्मयात्मालंबि रूपातीतम्।।
(25) तन्मयत्वमेवास्य स्वाध्यायाद् वैलक्षण्यम्।।
(9) ध्यान के दो प्रकार हैं-
(1) सालम्बन-आलम्बन-सहित।
(2) निरालम्बन-आलंबन-रहित।
(10) सालम्बन ध्यान के चार प्रकार हैं-(1) पिंडस्थ, (2) पदस्थ, (3) रूपस्थ, (4) रूपातीत।
(11) जिस ध्यान में शरीर के किसी अवयव का आलंबन लिया जाता है, वह पिंडस्थ कहलाता है।
(12) सिर, भ्रू, तालु, ललाट, मुँह, नेत्र, कान, नासाग्र, हृदय और नाभि-ये शारीरिक आलंबन हैं।
(13) धारणा का आलंबन लेने वाले ध्यान को भी पिंडस्थ कहा जाता है।
(14) स्थूल और सूक्ष्म शरीर की संवेदनाओं और क्रियाओं तथा मानसिक वृत्तियों के दर्शन के अभ्यास को प्रेक्षा कहा जाता है। यह भी एक प्रकार का पिंडस्थ ध्यान है।
(15) चित्त को किसी एक देश में सन्निविष्ट करने को धारण कहा जाता है।
(16) धारण के चार प्रकार हैं-(1) पार्थिवी, (2) आग्नेयी, (3) मारुती, (4) वारुणी।
(17) आसनस्थित होकर मेरे आधारभूत स्थान (समुद्र, पर्वत आदि) विशाल और विशद हैं-ऐसा अनुभव करना चाहिए।
(18) फिर उन पर अपने को स्थिर मानकर अपने सर्वशक्ति-संपन्न वीतराग स्वरूप की अनुभूति करनी चाहिए। अनुभूति को पुष्ट करते-करते चित्त उसी में विलीन हो जाना चाहिए। यह पार्थिवी धारणा है।
(19) नाभिकमल प्रज्वलित होने के कारण सब दोष दग्ध हो रहे हैं-इस अनुभूति को आग्नेय धारण कहा जाता है।
नाभिकमल स्थित त्रिकोण अग्निकुंड में अग्नि प्रज्वलित हो रही है, उससे सारे दोष भस्म हो रहे हैं-ऐसी धारणा करते-करते चित्त उसमें लीन हो जाना चाहिए।
(20) नाभिकमल में दोषों के चलने से जो भस्म होती है, उसे तेज वायु का झोंका उड़ाकर ले जा रहा है-ऐसा चिंतन करना मारुती धारणा है।
(21) शेष भस्म का प्रक्षालन करने के लिए विशाल मेघराशि की अनुभूति करने को वारुणी धारणा कहा जाता है।
(22) ¬, हृीं, र्हं, णमो अरहंताणं, अ सि आ उ सा आदि शब्द-मंत्रों, श्रुत (शब्दों या नामों) का आलंबन ले जो ध्यान किया जाता है, उसे पदस्थ ध्यान कहा जाता है।
(23) जिस ध्यान में संस्थान (आकृति विशेष) का आलंबन लिया जाता है, वह रूपस्थ ध्यान कहलाता है।
(24) सर्वमलातीत ज्योतिर्मय आत्मा के अमूर्त स्वरूप का आलंबन लेने को रूपातीत ध्यान कहा जाता है।
(25) ध्यान के प्रारंभ में स्वाध्याय होता है, चिंतन होता है, फिर भी ध्यान और स्वाध्याय एक नहीं है। स्वाध्याय में विषय की तन्मयता नहीं होती, समरसीभाव नहीं होता। ध्यान में तन्मयता होती है, समरसीभाव होता है। ध्यान करने वाला चिंतन करते-करते उसमें लीन हो जाता है, तन्मय हो जाता है। यह तन्मयता या लय ही ध्यान है। इस दशा में ध्येय और ध्याता में अभेद हो जाता है। परमात्मा के ज्योतिर्मय या आनंदमय स्वरूप में लीन होकर ध्याता स्वयं वैसा बन जाता है।
 
ध्यान के प्रकार
ध्यान शब्द की कल्पना करते ही हमारे सामने दो स्थितियाँ उभर आती हैं-(1) मन की एकाग्रता, (2) मन की निरोध।
एकाग्रता निर्विषय नहीं होती। वह किसी वस्तु या अवस्था पर निर्भर होती है। एकाग्रता की तुलना उस बच्चे से की जा सकती है जो माता की अंगुली के सहारे चलने का अभ्यास करता है। निरोध की तुलना उस किशोर से हो सकती है। जो अपने पैरों के बल चलने लग जाता है। पहले कोई परिकल्पना की जाती है, फिर उस पर मन को स्थिर किया जाता है, यह एकाग्रता है। इसमें मन की स्थिरता लक्ष्य के सहारे होती है, इसलिए इस एकाग्रतात्मक धर्म को सालम्बन ध्यान कहा जाता है।
मन का निरोध विषय-शून्यता की स्थिति में होती है। जब मन खाली हो जाता है, उसके सामने कोई खाली विषय नहीं रहता तब वह अपने आप निरुद्ध हो जाता है। जब मन में कोई कल्पना नहीं होती तब उसके सामने कोई शब्द नहीं होता, कोई आकार नहीं होता। शब्द और रूप के अभाव में वह निरालंबन 
हो जाता है और निरालंबन होने का अर्थ है कि उसकी गतिशीलता समाप्त हो जाती है। यही निरालंबन 
ध्यान है।
 
(क्रमशः)