संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
 
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
 
(9) शोधिः ऋजुकभूतस्य, धर्मः शुद्धस्य निष्ठति।
निर्वाणं परम याति, धृतसिक्त इवानलः।।
 
साधक दुःख के कारणों और उनकी मुक्ति के मार्ग की खोज में जुट पड़ता है। तब उसे सत्य का बोध होता है और वह अपने लक्ष्य का निर्णय कर लेता है। यहाँ से सत्य की शोध, जिससे दुर्गति का अंत हो, का प्रारंभ होता है। यही दर्शन का आदि-बिंदु है। जैन दर्शन यहाँ से प्रारंभ होता है और निर्वाण प्राप्ति में कृतकार्य हो जाता है।
राजा मिलिन्द ने स्थविर नागसेन से पूछा-‘प्रव्रज्या का क्या उद्देश्य है?’ नागसेन ने कहा-‘प्रव्रज्या का उद्देश्य है-दुःख मुक्ति और निर्वाण-प्राप्ति’। राजा ने पूछा-‘क्या आपने इसीलिए प्रव्रज्या ली थी?’ नागसेन ने कहा-‘नहीं। मैंने बौद्ध भिक्षुओं में बड़ा पांडित्य देखा। मैंने सोचा, मुझे भी सीखने को मिलेगा। सीखने के बाद मैंने जाना कि प्रव्रज्या का उद्देश्य क्या है।’
चार प्रकार के पुरुष होते हैं-
कुछ व्यक्ति दुःख-क्षय के लिए प्रव्रजित होते हैं और वे उसी ध्येय पर चलते हैं। कुछ व्यक्ति प्रव्रज्या के उद्देश्य को बाद में समझते हैं, किंतु तदनुरूप अभ्यास नहीं करते। कुछ जानते हैं और अभ्यास भी करते हैं। कुछ न जानते हैं और न तथानुरूप आचरण करते हैं।
एक व्यक्ति ने आचार्य महाप्रज्ञ को पूछा-‘प्रव्रज्या का प्रयोजन क्या है? आपने प्रव्रज्या क्यों ली?’ उन्होंने कहा-
 
अज्ञातं ज्ञातुमिच्छामि, गूढं कर्त्तुमनावृतम्।
अभूतो हि बुभूषामि, सेयं दीक्षा मर्माहती।।
 
मेरे प्रव्रज्या ग्रहण करने के मुख्य प्रयोजन तीन हैं-
(1) अज्ञात को ज्ञात करना। (2) आवृत को अनावृत करना। (3) जो नहीं हो सके वैसा होना-जो रूपांतरण आज तक घटित नहीं हो सका वैसा रूपांतरण घटित करना।
ध्येय का स्पष्ट चुनाव प्रथम क्षण में बहुत कम व्यक्ति ही कर पाते हैं। उनमें से बहुत कम व्यक्ति ही उसी दिशा में गतिमान रह सकते हैं। जिनका मोहावरण कुछ क्षीण हो, विशद बोध हो, वे ही व्यक्ति दुःख-मुक्ति के लिए उत्कंधर होते हैं। दुःख से कैसे मुक्ति हो? इस जिज्ञासा का समाधान ऋषियों ने विभिन्न स्वरों में दिया है। किंतु प्रतिपाद्य भिन्न नहीं है। दुःख-मुक्ति की पद्धति ही साधना-पद्धति बन गई, योग बन गया। कर्म-योग, ज्ञान-योग, भक्ति-योग, उपासना-योग आदि भिन्न-भिन्न नामों से उसे संबोधित किया गया है, किंतु इतना ही नहीं, जिस-जिस व्यक्ति द्वारा प्रणीत हुई उसके नाम या संप्रदाय के नाम से भी वह जुड़ गई। जैसे-जैन साधना पद्धति, बौद्ध साधना-पद्धति, हिंदू साधना-पद्धति आदि-आदि समस्त सरिताएँ अंत में जैसे सागर में विलीन हो जाती हैं वैसे ही स्वयं तक पहुँचकर साधना-विधियाँ भी विलीन हो जाती हैं, क्योंकि सभी पद्धतियों का ध्येय है-सत्य का साक्षात्कार। साधना का अवलंबन लिए बिना सत्य का अनुभव कठिन है।
बुद्ध से पूछा गया-‘कैसे मिली आपको सिद्धि?’
बुद्ध ने कहा-‘मत पूछो, कैसे मिली? जब तक किया तब तक नहीं मिली और जब करना छोड़ा, मिल गई।’ बुद्ध ने किया भी और नहीं भी किया। उस नहीं करने के लिए ही वह करना हुआ। महावीर के जीवन में भी यही घटित हुआ। वर्षों किया और जब साक्षात्कार हुआ तब पूर्ण मौन-अक्रिय-संवर, ध्यान-मुद्रा में लीन हो गए। संतजन जिस मार्ग से चले और सत्य को उपलब्ध हुए, वही साधना-पथ बन गया।
(क्रमशः)