आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी के 104वें जन्म दिवस पर विशेष
मुनि चैतन्य कुमार ‘अमन’
आत्मा साधना के साथ जन-मानस को कृतार्थ किया था जो आज भी विश्व मानव के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं। उनका विराट व्यक्तित्व और कर्तृत्व संपूर्ण जैन समाज ही नहीं बल्कि मानव मात्र के लिए पथ दर्शक है। उन महान विभूति का नाम हैµतेरापंथ धर्मसंघ के दशम अनुशास्ता आचार्यश्री महाप्रज्ञ। आचार्यश्री महाप्रज्ञ अनेक विशेषताओं को लिए हुए थे। वे अपने दीक्षा गुरु के प्रति सर्वात्मना समर्पित थे। दीक्षित होते ही पूज्य गुरुदेव कालूगणी ने ज्ञानार्जन हेतु अपने सुशिष्य मुनि तुलसी को सौंप दिया। आचार्य महाप्रज्ञ का जैसा समर्पण भाव कालूगणी के प्रति था वैसा ही शिक्षा गुरु मुनि तुलसी के प्रति रहा। उनकी एक ही भावना थी ‘आणाए मामगं धम्मं आगम का यह वाक्य उनका जीवन सहचर बन गया अर्थात् गुरु आज्ञा ही मेरा परम धर्म है। इसीलिए जब एक बार गुरु तुलसी ने आचार्य बनने के बाद पूछाµक्या तुम मेरे जैसा बनोगे तो महाप्रज्ञ ने सहज भाव से कहाµआप बनाओगे तो बन जाऊँगा। यह था उनका समर्पण भाव। उन्होंने गुरु के प्रति बहुमान और अटूट श्रद्धा का भाव रखा और उसी में अपूर्व आनंद की अनुभूति की।
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनमें साधना होती है पर विद्वता नहीं, तो कुछ में विद्वता होती है पर साधना नहीं आचार्य महाप्रज्ञ में साधना और विद्वता दोनों का समावेश था। उन्होंने ज्ञानार्जन के द्वारा विद्वता हासिल की तो प्रेक्षाध्यान के नित नए प्रयोगों से गहन साधना की। साधना की गहराई में उतरकर व अन्वेषण कर अनेक उपलब्धियाँ हासिल की। इतने उद्भट विद्वान होने के बावजूद वे कभी लौकेषणा में नहीं गए। वे एक ऐसे अनगार थे, जिनमें अहंकार और आवेश का भाव नहीं था। वे स्वयं कहा करते थे कि मुझे पता नहीं कि कभी जीवन किसी बात को लेकर मेरे मन में कभी अहंकार अथवा आवेश के भाव आए हो। ऐसे व्यक्ति ही साधना के क्षेत्र में विकास कर सकते हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ ऋजुप्राज्ञ थे। सरलता तो उनके रग-रग में थी। बचपन से ही वे भद्र प्रकृति थे। सरलता के साथ उनमें सहनशीलता का भी समावेश था। जैसा कि आचार्य तुलसी ने अनेक परिस्थितियों को समभाव से सहन किया था। उनके साथ रहकर आचार्य महाप्रज्ञ ने भी बहुत कुछ सहन किया। सरलता और सहनशीलता के सद्गुण ने ही अपने गुरु तुलसी के दिल में एक विशिष्ट स्थान बना लिया था। यों कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी कि वे गुरुदेव श्री तुलसी के दिल में उतर गए। अनुकूल परिस्थिति में उदासीन भाव और प्रतिकूलता की स्थिति में समभाव रखा और यही बन गया, उनका महान लक्ष्य।
यद्यपि वे एक धर्मसंघ के आचार्य बने पर उनका चिंतन सदैव ही असांप्रदायिक ही रहा। संप्रदाय को वे संघीय व्यवस्था मानते थे। उनके कार्य जैन शासन की प्रभावना तथा मानवता की सेवा के संदर्भ में थे। इसी बात को सामने रखकर सदा अपने प्रवचनों में सार्वभौम और सार्वजनीय हितोपदेश के रूप में कराते थे। यहाँ तक जीवन में नवमें दशक में उन्होंने अहिंसा यात्रा की। ‘सत्वेषु मैत्री’ की प्रबल भावना से उन्होंने पंचवर्षीय यात्रा के दौरान जन-जन को नैतिकता, सद्भावना और भाईचारे का संदेश दिया। जातिवाद प्रांतवाद, संप्रदायवाद व्यक्ति और समाज में अलगाव पैदा करता है। अतः इसे कभी महत्त्व नहीं दिया। अतः भारत की अनेक महान हस्तियाँ उनके चरणों में आकर मार्गदर्शन प्राप्त करती रही चाहे वे राजनेता, समाजनेता, धर्मगुरु आदि किसी संस्था या संघ से जुड़े क्यों नहीं थे। एक बार राष्ट्रपति अब्दुल कलाम उनके चरणों में आए तो महाप्रज्ञ ने एक ऐसी बात कही कि महाप्रज्ञ के फैन हो गए। महाप्रज्ञ ने कहा कलाम साहब आपने अनेक मिसाईलें बनाई हैं, किंतु अब शांति की मिसाईल बनाईए। इस बात से वे इतने प्रभावित हुए कि प्रतिवर्ष महाप्रज्ञ के चरणों में आने लग गए। जब सूरत में आचार्य महाप्रज्ञ चातुर्मास करवा रहे थे तो वे अपना जन्मदिन मनाने व आशीर्वाद लेने पहुँच गए और एक शानदार कार्यक्रम आयोजित हुआ। फिर एक पुस्तक का निर्माण हुआ जिसमें आचार्य महाप्रज्ञ और अब्दुल कलाम की रचनाओं को सम्मिलित किया गया।
आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा आगम संपादन के साथ साहित्य के क्षेत्र में दो सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उनका वह साहित्य आज भी जन-जन का मार्गदर्शन कर रहा है। हम उनके जन्मदिन पर यही भावना करते हैं कि उनके द्वारा प्राप्त अवदानों से मार्गदर्शन से अपने साधना वैभव को बढ़ाते रहे तथा उनकी आचार-निष्ठा, संयमप्रियता, सरलता, गंभीरता, सहिष्णुता के साथ मानवता, नैतिकता व भाईचारे की भावना को विकसित कर सकें। हम भी जीएँ सरलता से चलें, सजगता से कहें, सुगमता से रहें, निस्पृहता से, सहें सहनशीलता व समता से मानें, कृतज्ञता से उन कुशल नेतृत्व प्रदान कर्ता आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रति उनके 104वें जन्मदिन पर कृतज्ञ भाव से चैतन्य का वंदन-वंदन-वंदन।।
क्या कहूँ, कैसे कहूँ बात सूरज की दीपक की जुबानी है।
जो कहूँ जितना कहूँ अल्प ही होगा, सागर की गाथा, बूँद की कहानी है।।