संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

संबोधि
 
बंध-मोक्षवाद
 
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
 
(12) सत्यधीरात्मलीनोऽसौ, सत्यान्वेषणतत्परः।
स्थूलसत्यं समुत्सार्य, सूक्ष्मं तदवगाहते।।
 
उसकी बुद्धि सत्य में नियोजित हो जाती है। वह आत्मलीन और सत्य के अन्वेषण में तत्पर होता है। वह स्थूल सत्य को छोड़कर सूक्ष्म सत्य का अवगाहन करता है।
 
(13) माता पिता स्नुषा भ्राता, भार्या पुत्रास्तथौरसाः।
त्राणाय मम नालं ते, लुप्यमानस्य कर्मणा।।
 
सूक्ष्म सत्य का अवगाहन करने वाला इस सच्चाई को पा लेता है कि अपने कर्मों से पीड़ित होने पर मेरी सुरक्षा के लिए माता-पिता, पुत्रवधू, भाई, पत्नी और औरस पुत्र-कोई समर्थ नहीं हैं।
जैसे-जैसे साधक सत्य की खोज में आगे बढ़ता है, अस्तित्व के निकट पहुँचता है, वैसे-वैसे उसकी स्थूल सत्य की कल्पनाएँ गिरने लगती हैं। अब तक का जो माना हुआ कल्पित आकार था वह नष्ट होने लगता है। वह देखता हैµमैं अपने को क्या समझता था? और क्या हूँ? यह नाम-रूप मैं हूँ? दृश्य को ‘स्व’ समझ रहा था। और ‘पर’ में आत्म-बुद्धि मान रहा था। मैं और मेरे का संबंध स्थापित किया। संयोग में शाश्वत की बुद्धि थी। अब कोई मेरा प्रतीत नहीं होता। सब अज्ञान था और सब अज्ञान में हैं। संबंधों का जाल खड़ा कर उलझ रहे हैं। मेरा मेरे अतिरिक्त कोई त्राण नहीं है। बुद्ध ने ठीक कहा हैµ‘अपने दीपक स्वयं बनो, स्वयं ही स्वयं की शरण हो?
स्व-दर्शन में झूठी मान्यता टिक नहीं सकती। प्रकाश के सामने अंधकार का अस्तित्व कब टिका है? सत्य प्रकाश है, ज्योति है, उस ज्योति के समक्ष मिथ्या धारणाएँ कैसे खड़ी रह सकती हैं? बुद्ध को ज्ञान हुआ तब अपने मन से कहाµ‘मेरे मन! अब तुझे विदा देता हूँ। अब तक तेरी जरूरत थी शरीर रूपी घर बनाने थे। अब मुझे परम निवास मिल गया।’
‘कोई अपना नहीं है’µइसे खाली दोहराओ मत। सचाई का दर्शन करो। ‘नालं मम ताणाए’ मेरे लिए धन, पद, यश, प्रतिष्ठा, परिवार, स्वजन आदि कोई त्राण नहीं है और न मैं भी उनका त्राण हूँ। जिस व्यक्ति की यह घोषणा है वह प्रत्यक्ष-द्रष्टा है। उसने अंतर में प्रवेश कर निरीक्षण किया है। हम भी इसके साथ गहराई में उतरें और सच्चाई का अनुभव करें।
 
(14) अध्यात्म सर्वतः सर्वं, दृष्ट्वा जीवान् प्रियायुषः।
न हन्ति प्राणिनः प्राणान्, भयादुपरतः क्वचित्।।
 
सभी जीव सब तरह से समान आत्मानुभूति रखते हैं। उन्हें जीवन प्रिय है, यह देखकर प्राणियों के प्राणों का वध न करे, भय और वैर से निवृत्त बनेµअभय बने।
(क्रमशः)