संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

मिथ्या सम्यक् ज्ञान मिमांसा
वैर वैर से शांत नहीं होता। वैर की शांति अवैर से होती है। आत्म-द्रष्टा सब प्राणियों में आत्मत्व ही देखता है। वह न किसी को शत्रु मानता है, न किसी को मित्र द्य शत्रु और मित्र की कल्पना सारी व्यावहारिक है। मैत्री और शत्रुता परिचित के साथ होती है। आत्मा यदि अपरिचित है तो कौन शत्रु है और कौन मित्र। अगर आत्मा परिचित है तो सब आत्माएं हैं, कोई शत्रु और कोई मित्र नहीं है। शत्रु और मित्र की बुद्धि राग-द्वेष को उत्पन्न करती है। राग से व्यक्ति प्रेम करता है और द्वेष से घृणा। दोनों ही बंधन हैं। सत्यद्रष्टा अभय और निर्वैर होता है। वह न किसी को डराता है और न किसी से डरता है।
१५- आदानं नरकं दृष्ट्वा, मोहं तत्र न गच्छति।
आत्मारामः स्वयं स्वस्मिन्लीनः शान्तिं समश्नुते।।
आदान-परिग्रह को नरक मानकर जो उससे मोह नहीं करता और स्वयं अपने में लीन रहता है, वह आत्मा में रमण करने वाला व्यक्ति शांति को प्राप्त होता है।
परिग्रह आदान इसलिए है कि वह कर्म का ग्रहण करता है। कर्म के संग्रह से आत्मा का पतन होता है। सत्य-द्रष्टा परिग्रह में आसक्त नहीं होता, क्योंकि वह इसे बंधन मानता है। आत्मा की शांति परिग्रह में नहीं है, वह है आत्मलीनता में साधक इसीलिए आत्मलीनता में व्यग्र रहता है। परिग्रह के मोह में फंसे व्यक्तियों को शांति नहीं मिलती। ये परिग्रह की आशा में ही व्यस्त रहते हैं। शंकराचार्य ने ऐसे व्यक्तियों के लिए लिखा है जिसका शरीर जीर्ण हो गया है, सिर के बाल सफेद हो गए हैं, मुंह दांतों से विहीन हो गया है; फिर भी वे आशा से मुक्त नहीं होते।श्
१६- इहैके नाम मन्यन्ते, अप्रत्याख्याय पापकम्।
विदित्वा तत्त्वमात्मासौ, सर्वदुःखाद्विमुच्यते।।
कुछ लोग यह मानते हैं कि पाप का परित्याग करना आवश्यक नहीं होता। जो आत्म-तत्त्व को जान लेता है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।
१७- वदन्तश्चाप्यकुर्वन्तो, बन्धमोक्षप्रवेदिनः।
आश्वासयन्ति चात्मानं, वाचो वीर्येण केवलम्।।
जो केवल कहते हैं, किंतु करते नहीं, बंधन और मुक्ति का निरूपण करते हैं, किंतु बंधन से मुक्ति मिले वैसा उपाय नहीं करते, वे केवल वचन के वीर्य से अपने आपको आश्वस्त कर रहे हैं।
१८- न चित्रा त्रायते भाषा, कुतो विद्यानुशासनम्।
  विषण्णाः पापकर्मेभ्यो, बालाः पण्डितमानिनः।।
वे अज्ञानी अपने आपको पण्डित मानते हुए भी बाल हैं। वे पाप-कर्म से विषाद को प्राप्त हो रहे हैं। उन्हें विचित्र प्रकार की भाषाएं और विद्या का अनुशासन-शिक्षण भी पाप से नहीं बचा सकता।
पांडित्य और सम्यग् ज्ञान का अंतर जान लेना आवश्यक है। सम्यग् ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता। उसके लिए स्वयं में प्रवेश करना होता है। पांडित्य-विद्वत्ता बाहर से आती है। जो भी अर्जित ज्ञान है वह सब पांडित्य है, उधार है, अपना नहीं है। पंडित बनने के लिए विश्व में बहुत साहित्य है, शिक्षक है, वक्ता हैं और भी विविध प्रकार के आधुटिक उपकरण हैं। वैज्ञानिक कहते हैं-मनुष्य के दिमाग में इतने प्रकोष्ठ हैं जिनमें समग्र विश्व का साहित्य संगृहीत किया जा सकता है। 
दुनिया के सभी पुस्तकालयों का ज्ञान उनमें भरा जा सकता है। इतनी क्षमता होते हुए भी यह स्पष्ट है कि मनुष्य स्वयं को इस ज्ञान से नहीं जान सकता। श्कन्फ्यूसियसश् का बड़ा कीमती वचन है-श्ज्ञानी वह होता है जो अपने को जानता है; और विद्वान् वह होता है जो दूसरों को जानता है।श् विद्वान् और ज्ञानी का यह भेद स्पष्ट सूचित करता है कि ज्ञान की प्रक्रिया शिक्षा से सर्वथा भिन्न है। कबीर ने ठीक कहा है-
पंडित और मसालची, दोनूं सूझे नाय।
औरन को करै चांदनो, आप अंधेरे मांय।।
परमात्म प्रकाश में लिखा है-
आत्म-ज्ञान विण अन्य जे, ज्ञान न तेनूं नाम।
ते थी रहित पण तप बने दुख कारण सुतराम्।।
(क्रमशः)