उपासना (भाग एक)

स्वाध्याय

उपासना (भाग एक)

श्रावक श्री रूपचंदजी सेठिया

रुपचंदजी ने तत्काल एक आदमी को दौड़ाया और उस ग्राहक को वापस बुलवाया। उन्होंने उसके दो गज कपड़े की पूर्ति तो की ही, मुनीम को भी दुकान छोड़ने को कह दिया।  वे जैसे अध्यात्म-प्रेमी और शासन-भक्त श्रावक थे, अन्तिम समय में भी उन्हें उसी के अनुरूप धर्म का सहयोग मिला। सं-1983 के फाल्गुन महीने में अष्टमाचार्य कालूगणी का सुजानगढ़ में पदार्पण हुआ, उन दिनों रूपचन्दजी रुग्ण थे। आचार्यप्रवर स्थंडिल भूमि से वापस आते समय प्रायः दोनों समय ही दर्शन दिया करते थे। प्रातः काल में तो कई बार वहां विराज कर उन्हें सेवा भी कराते थे। फाल्गुन शुक्ला सप्तमी की संध्या को जब कालूगणी तथा मुनि मगनलालजी आदि उन्हें दर्शन देकर वापस स्थान पर पधारे, तब बालचन्दजी बैंगानी आदि उपस्थित श्रावकों को फरमाया कि रूपचन्दजी का शरीर टिकना अब कठिन लगता है, अतः अन्तिम समय में उन्हें धर्म का सहाय मिले तो ठीक रहे। आचार्यश्री की उस भावना के आधार पर कुछ श्रावक रात को उनके वहां गये। उस समय उनके श्वास का वेग अधिक था। श्रावकों ने उन्हें धर्म-ध्यान की प्रेरणा देते हुए कहा कि आपको त्याग-प्रत्याख्यान तो काफी हैं ही, किन्तु इस अवस्था में विशेष कुछ करने की भावना हो तो यह अच्छा अवसर है।
रूपचन्दजी ने उनकी भावना को समझते हुए कहा-आप लोग मुझे धर्म का सहाय देते हैं, यह उचित ही है। संथारे का विचार तो अभी मेरा है नहीं। देर धार्मिक ढालें आदि सुनाकर श्रावकगण वापस आ गये। रूपचन्दजी अपने विषय में पूर्ण सावधान थे। आधी रात के लगभग उन्होंने पास में बैठे व्यक्तियों से कहा कि अब मुझे नीचे सुला दो। जब उन्हें नीचे सुला दिया गया तब सबके सम्मुख उन्होंने अरिहंत, सिद्ध और गुरु की साक्षी से यावज्जीवन के लिए चतुर्विध आहार का त्याग कर संथारा ग्रहण कर लिया। लगभग एक घंटा पांच मिनिट का संथारा प्राप्त कर रात्रि के एक बजने के कुछ देर बाद ही उनका देहान्त हो गया। लगभग दो बजे कालूगणी नींद से अचानक उठकर विराज गये और मुनि मगनलालजी को जगाकर फरमाया कि रूपचन्दजी का शरीरांत हो गया है, ऐसा मालूम पड़ता है। मुनि मगनलालजी ने पूछा-‘क्या कोई व्यक्ति अभी आया है?’ कालूगणी ने कहा कि नहीं, आदमी तो कोई नहीं आया, परन्तु अभी-अभी सारा स्थान एक साथ जोर से प्रकाशित हो उठा था अतः मेरा यह अनुमान है। उक्त बातचीत के थोड़ी देर पश्चात् ही उनके दिवंगत होने की सारी जानकारी देने के लिये वहां से कई व्यक्ति आ गये। इस प्रकार श्रावक रूपचन्दजी अपनी साठ वर्ष की अवस्था में एक आदर्श श्रावक का उदाहरण प्रस्तुत कर गये। उन्होंने पांच आचार्यों के समय को देखा और बड़ी लगन से सबकी सेवा में लगे रहे।
(क्रमशः)