उपासना

स्वाध्याय

उपासना

श्राविका सुलसा

राजगृह नगर के महाराज श्रेणिक के एक प्रीतिपात्र रथिक का नाम नाग था और नाग की पत्नी का नाम सुलसा था। सुलसा पतिपरायणा दृढ़धर्मिणी नारी थी। भगवान्‌‍‍ महावीर की परम श्राविकाओं में उसका प्रमुख स्थान था। इतना सबकुछ होते हुए भी उसके कोई सन्तान नहीं थी। सन्तान की चिन्ता नाग के मन में भी थी तथा सुलसा के मन में भी। फिर भी इसे अपने तकमों का परिपाक मानकर सुलसा धर्मध्यान में समय बिताती थी। नाग को दूसरा विवाह न करने का नियम था। सुलसा सन्तान- प्राप्ति के लिए कोई भी धर्मविमुख उपक्रम या अनुष्ठान करने को तैयार नहीं थी। पूर्ण समताशील होकर जीवन बिता रही थी।
एक बार देवेन्द्र ने देवसभा में सुलसा की समता की सराहना करते हुए कहा- सुलसा इतनी समता वाली है, चाहे उसकी कोई कितनी ही हानि कर दे परन्तु उसे क्रोध नहीं आता।
उसकी परीक्षा लेने एक देव साधु का रूप बनाकर सुलसा के घर आया। सुलसा ने बन्दना की। आहार पानी लेने की प्रार्थना की। साधु ने कहाभोजन देने वाले तो और भी नगर में बहुत मिल जायेंगे। मुझे तो तेरे यहां से लक्षपाक तेल लेना है। परम प्रसन्न बनो सुलसा लक्षपाक तेल का घट उठाकर लाई। घड़ा ज्यों ही उठाया, देव ने अपनी माया से गिराकर फोड़ दिया। इसी प्रकार दूसरा, तीसरा घड़ा भी फोड़ दिया। फिर भी सुलसा न कुपित हुई और न ही कीमती वस्तु के विनष्ट होने पर व्यक्ति ही।
अफसोस व्यक्त करते हुए मुनि बोले- श्मेरे योग से तेरा इतना नुकसान हुआ है।श् सुलसा ने अपनी सहजता से कहा- श्मुनिवर ! इसकी मुझे चिन्ता नहीं है। परन्तु आपकी आवश्यकता की औषधि नहीं दे सकी, इसका खेद अवश्य है।’ देव ने उसकी तितिक्षा देखकर अपने असली रूप में प्रकट होकर सारी बात कहीश्तू इन्द्र द्वारा प्रशंसित है। मैं परखने आया था परन्तु तू परख में खरी सिद्ध हुई। मैं प्रसन्न हूँ, इच्छित वर मांग।’ सुलसा ने कहा- सही धर्म मुझे मिला हुआ है और मुझे किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं है। फिर भी देव के देने का अल्याग्रह देखकर सुलसा ने कहा- यदि देना ही चाहते हो तो एक पुत्र हो, ऐसा उपाय बताइये।श् श्आप देव ने प्रसन्न होकर बत्तीस गोलियां दीं। एक-एक गोली से एक-एक पुत्र हो आयेगा ऐसा कहा और उसकी प्रशंसा करता हुआ अन्तर्धान हो गया।
सुलसा ने सोचा- मुझे बत्तीस पुत्रों की क्या आवश्यकता है? अच्छा होगा, बत्तीस गोलियां एक साथ ही खा लूं जिससे बत्तीस लक्षणों वाला एक पुत्र ही हो जायेगा। ऐसा विचारकर बत्तीस गोलियां एक साथ खा लीं।
संयोगवश बत्तीस जीव गर्भ में आये। जब गर्भ बढ़ने लगा तो सुलसा दर्द होना ही था। सुलसा ने देव को याद किया। देव ने सान्त्वना दी। ऐसा करने के लिए टोका भी। खैर, यथासमय सभी पुत्रों का सकुशल प्रसव देव ने करा दिया। यह अवश्य कहा ये सभी पुत्र एक साथ ही मृत्यु को प्राप्त होंगे।
बड़े होने पर इन सब का विवाह कर दिया गया। के हरण के समय सुरंग में इन सभी पुत्रों का एक साथ ही अवसान हो गया। पुत्रों की मृत्यु से सुलसा को शोक तो हुआ पर वह समताशील थी। उसने पुत्रों की मृत्यु को भाग्य की लीला माना तथा उनकी मृत्यु के बाद अपनी धर्म-श्रद्धा में और अधिक दृढ़ हो गई।
एकदा में भगवान्‌‍‍ महावीर का उपदेश सुनने अंबड संन्यासी गया। उपदेश सुनकर जाने लगा तब बोला- मैं राजगृह जा रहा हूं। कभी मौका हो तो आप भी राजगृह पधारने की पा करना।
भगवान्‌‍‍ ने प्रसंगवश कहा वहां सुलसा श्राविका है, वह श्रद्धा में बहुत दृढ़ है।
अंबड वैक्रियलब्धिसम्पन्न संन्यासी था। मन में आया, भगवान्‌‍‍ ने जिसकी सराहना की है उसकी परीक्षा तो कर ही लेनी चाहिए। वह राजगृह आकर अपने लब्धि के योग से लोगों को प्रभावित करने के लिये पूर्व दिशा के द्वार पर ब्रह्मा का रूप बनाकर उपस्थित हो गया। हजारों-हजारों व्यक्ति गये परन्तु सुलसा नहीं गई, यों क्रमश: दक्षिण, पश्चिम, उत्तर के दरवाजे पर भी विष्णु, शंकर तथा अन्तिम दिन भगवान्‌‍‍ महावीर का रूप बनाकर भी समवसरण की रचना की। सुलसा तो फिर भी नहीं गई। महावीर बने अंबड ने स्वयं सुलसा के घर जाकर पूछासुलसा! तू मेरे दर्शनार्थं क्यों नहीं आई? क्या में भगवान्‌‍‍ महावीर नहीं हूं?
सुलसा ने कहा-‘हां! आप भगवान्‌‍‍ महावीर नहीं हैं। इसीलिए मैं नहीं आई और न ही आऊंगी।’
अंबड-‘क्यों, मैं भगवान्‌‍‍ महावीर क्यों नहीं हूं?
सुलसा‘भगवान्‌‍ महावीर की आंखें क्रोध से कभी लाल नहीं होती हैं। आपकी आंखें लाल हो रही हैं।’
अंबड मन ही मन झेंपा। अपना मूल रूप प्रगट कर उसने भगवान्‌‍ की कही हुई सारी बात कही तथा कहातू कसौटी पर खरी उतरी। इसकी मुझे परम प्रसन्नता है। सुलसा ने भी साधर्मिक भाई को अपने घर आया देखकर प्रसन्नता व्यक्त की। भगवान्‌‍ का सुख-संवाद पूछा। दृढधर्मिणी सुलसा ने अंत में सभी पापों की आलोचना करके समाधिकरण प्राप्त किया स्वर्ग में गई। वहां से च्यव करके आने वाली चौबीसी में निर्मम नाम से पन्द्रहवां तीर्थंकर होगी।

(क्रमश:)