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स्वाध्याय

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मिथ्या सम्यक्‌‍ ज्ञान मिमांसा

विद्वत्ता के साथ आचरण भी आए, यह जरूरी नहीं है, किन्तु सम्यग्‌‍‍ ज्ञान के साथ रूपांतरण निश्चित है। ज्ञान शक्ति है। वह यथार्थस्वरूप आपके सामने प्रस्तुत करेगा। उसे आप स्वीकार करेंगे तो नि:सन्देह रूपांतरित होंगे। अन्यथा उस ओर आप आंख बन्द कर लेंगे। धर्म के वास्तविक स्वरूप-ध्यान से डरने का और क्या है? वह जितनी कुरूप प्रतिमाएं छिपी हैं उन्हें प्रकाश में लाता है। इसलिए आपका वैसा रहना असंभव हो जाता है। वे मिथ्या प्रतिमाएं खंडित होगी या फिर आप पीछे हट जाएंगे।
ज्ञान से ही जो मुक्ति की बात कहते है-वह केवल सत्य के संबंध में सीखे हुए ज्ञान की बात है, न कि साधना द्वारा उपलब्ध ज्ञान की। महाबीर के युग में ऐसी मान्यता थी, इसलिए उन्हें यह घोषणा करनी पड़ी कि विविध भाषाओं का बोध आदमी को नहीं दे सकता उसे सम्यग्‌‍‍ ज्ञान की आराधना करनी होगी। सम्यग-दर्शन, सम्यग्‌‍‍ ज्ञान, सम्यग्‌‍‍ आचरण-इस त्रिवेणी में डुबकी लगाकर ही व्यक्ति कल्मष से छूट सकता है।
जैन दृष्टि से मोक्ष के उपाय है-सम्यम्‌‍‍ दर्शन, सम्यग्‌‍‍ ज्ञान, सम्यग्‌‍‍ आचरण और सम्यग्‌‍‍ तप। दर्शन सबका आधार है। दर्शन के अभाव में अन्य साधनों की उपादेयता नग है आधार सु हुआ कि भवन का निर्माण अचिर काल में हो सकता है। दर्शन की स्वीति नहीं हो सकती है, उसकी आराधना होती है। यह कोई वस्तु नहीं है कि जिसका आदान प्रदान किया जा सके। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी करनी होती है।
दर्शन का अर्थ है-देखना प्रश्न होगा कि क्या देखें ? जो हम देखते हैं वह भी दर्शन है, किन्तु वह सम्यग्‌‍‍ नहीं। क्योंकि उससे हम दृश्य को ही देखते हैं। सम्यग्‌‍‍ दर्शन तब घटित होता है जब आपके सामने कोई दृश्य न हो, जो देखने वाला है उसे आप देखें यह सम्यग्‌‍‍ दर्शन है। सब दृष्टियां खो जाएं, केवल द्रष्टा रहे। शुद्ध निश्चय की भाषा में आचार्यों ने इसे ही सम्यग्‌‍‍ दर्शन कहा है। योगसार में लिखा है-
आत्मा दर्शन, ज्ञान गुण, आत्म गुण चारित्र।
आत्मा संयम, शील, तप, प्रत्याख्यान पवित्र।
किसी अन्य आचार्य ने कहा है-
स्व थी स्व ने जीव जाणता, सम्यग्‌‍‍ दृष्टि थाय।
सम्यग्‌‍‍ दृष्टि जीव तो, कर्ममुक्त झट थाय॥
जड़ और चेतन के मध्य का सघन आवरण सम्यग्‌‍‍ दर्शन के द्वारा विनष्ट होता है। सम्यग्‌‍‍ दर्शन के आलोक में स्व-पर का स्पष्ट बोध उद्भाषित होता है। आगे का पथ फिर स्वत: सरल और स्पष्ट हो जाता है। मृगापुत्र ने अपने माता-पिता से कहा-‘जैसे घर में आग लग जाने से गृहस्वामी अपनी बहुमूल्य वस्तुओं को बाहर निकालता है और तुच्छ को छोड़ देता है, ठीक इसी प्रकार मैं भी देखता हूं, मेरे घर में भी अग्नि की लपटें उठ रही हैं। घर धूं-धूं जल रहा है। अग्नि है-वृद्धत्व और मौत की। मैं चाहता हूं तुम्हारी आज्ञा लेकर अपनी महामूल्यवान्‌‍‍ आत्मा को बचाना।’
जिसे दर्शन होता है उसके जीवन में यह अवश्यंभावी घटने वाली घटना है। जो दूसरों को दिखाई नहीं देता, वह उसे दिखाई देता है। अब कैसे वह अपने को श्परश् में उलझाए रख सकता है? दर्शन के साथ ही ज्ञान की घटना घटती है। और उसके साथ ही चारित्र (स्व में अवस्थित होने का भाव जागृत हो जाता है। स्व में होना तप है और वह पूरी प्रक्रिया भी तप है जिसके द्वारा स्व में अवस्थान होता है। संक्षेप में महावीर की यही साधना पद्धति है। दर्शन उसका केन्द्र है। ध्यान दर्शन के लिए है या दर्शन ही ध्यान है। दर्शन के निष्कर्ष है-शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य।
शम का अर्थ है-शांति। शांति सम्यग्‌‍‍ दृष्टि की झलक है। जिससे यह बोध होता है कि व्यक्ति को भीतर कुछ प्राप्त है। अषांति के जनक क्रोध, अहंकार, राग-द्वेष आदि हैं। सम्यग्‌‍‍ दर्षन की स्थिति में इनका अस्तित्व शांत हो जाता है।
संवेग का अर्थ है- दु:ख मुक्ति के लिए तीव्र उत्साह। जैसे-जैसे स्व-धारा का वेग वर्धमान होता है वैसे-वैसे साधक के चरण उस दिषा में और अधिक गतिषील हो जाते हैं। मंजिल पर पहुंचे बिना उसे चैन नहीं मिलता।
(क्रमश:)