मनोनुशासनम्
दूसरा अंग - निरभ्र आकाश की ओर टकटकी लगाकर देखते जाइए। थोड़े समय में चित्त विचार-शून्य हो जाएगा।
तीसरा अंग- केवल कुम्भक का अभ्यास कीजिए। मन विचार-शून्य हो जाएगा। चौथा अंग मानसिक विचारों को समेटकर हृदय-चक्र की ओर ले जाइए। फिर गहराई में उतरने का अनुभव कीजिए। ऐसा करते ही चित्त विचार-शून्य हो जाएगा।
पांचवां अंग - आत्मा या चौतन्य केन्द्र की धारणा को दृढ़ कर उसके सान्निध्य का अनुभव कीजिए। वह सहज शान्त और निर्विचार हो जाएगा।
इस प्रकार अनेक हैं, जिनके द्वारा निर्विचार ध्यान को सुलभ बनाया जा सकता है किन्तु उन सब में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पद्धति है- अप्रयत्न - प्रयत्न का विसर्जन, प्रवृत्ति का सर्जन।
27. शुद्ध चौतन्यानुभव: समाधि:॥
शुद्ध चौतन्य के अनुभव को समाधि कहा जाता है।
28. विकल्पन्शूयत्वेन चित्तस्य समाधानं वा॥
विकल्पशून्यता होने पर चित्त समाहित हो जाता है, उसे भी समाधि कहा जाता है।
29. संतुलन वा॥
संतुलन को भी समाहित कहा जाता है।
30. रागद्वेषाभावे चित्तस्य समत्वं संतुलनम्॥
रागद्वेष के अनुदय में चित्त की समता का प्रकट होना संतुलन है।
31. समत्व- विनय - श्रुत-तपश्चारित्रभेदात् स पञ्चधा॥
समाधि के पांच प्रकार हैं- . समत्व . विनय . श्रुत . तप . चारित्र
32. रागद्वेष-विकल्पशून्यत्वात्, मान- विकल्पशून्यत्वात्, चित्तस्थैर्यानुभवात्, भेद-विज्ञानानुभवात्,
समत्वादीनिसमाधिपदवाच्यानि॥
समत्व में रागद्वेषात्मक विकल्प नहीं होता इसलिए उसे समाधि कहा जाता है। विनय में अभिमान का विकल्प नहीं होता इसलिए उसे समाधि कहा जाता है। श्रुत में चित्त की स्थिरता का अनुभव होता है। इसलिए उसे समाधि कहा जाता है। तप और चारित्र में भेद-विज्ञान का अनुभव होता है इसलिए उन्हें समाधि कहा जाता है।
समाधि
समाधि का अर्थ है- चित्त की एकाग्रता और उसका निरोध महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग में धारणा, ध्यान और समाधि- इन तीन अंगों का प्रतिपादन किया है।
बौद्ध साधना पद्धति में समाधि का अर्थ चित्त और चौतसिक का दृढ़ स्थिरीकरण है। मन ध्यान वस्तु में स्थिर हो जाता है, क्योंकि मन के साथ रहने वाले मानसिक तथ्य ( चौतसिक) पवित्र होते हैं और वे मन को स्थिर होने में सहयोग देते हैं दृढ़ स्थिरीकरण का अर्थ है-मन का एक वस्तु में स्थिर होना इसमें और किन्हीं बाधाओं और दोषों का समावेश नहीं होता।
जैन साधना पद्धति में समाधि का अर्थ है- शुद्ध चौतन्य का अनुभव या चित्त का समाधान या चित्त का सन्तुलन। धारणा, ध्यान और समाधि-ये तीनों एक ही तत्त्व की तीन अवस्थाएं हैं। धारणा का प्रकर्ष ध्यान और ध्यान का प्रकर्ष समाधि है। धारणा चित्त की एकाग्रता से शुरू होती है, ध्यान में एकाग्रता परिपुष्ट हो जाती है और समाधि में वह निरोध की अवस्था में बदल जाती है।
चित्त की एक वृत्ति के शान्त होने पर दूसरी वृत्ति उसी के अनुरूप उठे और उस प्रकार की अनुरूप वृत्तियों का प्रवाह चलता रहे, उसका नाम चित्त की एकाग्रता है चित्त की मूढ़ अवस्था में राग और द्वेष का उदय प्रबल होता है, इसलिए उसमें संतुलित एकाग्रता नहीं होती। उस अवस्था में असंतुलित एकाग्रता आतं और रौद्र ध्यान की एकाग्रता हो सकती है किन्तु आत्मिक विकास के लिए उसका कोई उपयोग नहीं है। वह दोषपूर्ण एकाग्रता है। वह संतुलित चित्त की एकाग्रता में बाधक बनती है। विक्षिप्त और यातायात चित्त की एकाग्रता सामयिक होती है। जिस समय चित्त में स्थिरता प्रकट होती है, उस समय अस्थिरता तिरोहित हो जाती है। कुछ समय बाद अस्थिरता आती है और स्थिरता चली जाती है। इन दोनों भूमिकाओं के साधक कभी अपने को समाधि अवस्था में अनुभव करते हैं और कभी असमाधि अवस्था में उनका आचरण बार-बार बदलता रहता है। श्लिष्ट और सूलीन चित्त की इन दो भूमिकाओं में एकाग्रता का मूल सुदृढ़ होता है। श्लिष्ट चित्त की एकाग्रता को धारणा ओर सुलीन चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा जा सकता है। इन दोनों को एक शब्द में धर्म्यध्यान कहा जा सकता है। चित्त की छठी भूमिका निरुद्ध है। इसे शुक्ल-ध्यान कहा जा सकता है। शुक्ल ध्यान को उत्तम समाधि, धर्म्यध्यान को मध्यम समाधि और धारणा को प्राथमिक समाधि कहा जा सकता है। धर्म्यध्यान की एकाग्रता चिरस्थायी होती है इसलिए उससे मन समाहित हो जाता है, वशीभूत हो जाता है उसे बाधाएं परास्त नहीं कर सकती। शुक्लध्यान में चित्त का चिरस्थायी निरोध हो जाता है। उससे वृत्तियां क्षीण होती हैं। धारणा में चित्त संतुलित होता है, ध्यान में समाहित और समाधि में केवल चौतन्य का अनुभव शेष रहता है।
समाधि के पांच प्रकार अभ्यास की दृष्टि से किए गए हैं। रागात्मक और द्वेषात्मक विकल्प से शून्य चित्त की अवस्था में समाधि उत्पन्न होती है। इस दृष्टि से समाधि का कोई भेद नहीं होता किन्तु वह विकल्प-शून्य अवस्था में अनेक अभ्यासों और प्रयोगों के द्वारा प्राप्त की जा सकती है इसलिए उसे कई भागों में विभक्त भी किया जा सकता है।
समाधि का एक प्रयोग है समत्व। लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों में सम (उदासीन या तटस्थ ) रहने का अभ्यास करते-करते राग और द्वेष के विकल्प शान्त हो जाते हैं-चित्त समाहित हो जाता है।
चित्त की असमाधि का हेतु है-अभिमान। मनुष्य जितना परिग्रही होता है, उतना ही अभिमानी होता है-परिग्रह का अर्थ है-मूर्च्छा, आसक्ति। जो वैभव, सत्ता आदि पदार्थों में मूच्छित होता है और यह मानता है-मेरे पास वैभव है, अधिकार है, मेरे पास यह है, वह है। ऐसा मानने वाला अभिमान के विकल्प से भरा रहता है। समाधि चाहने वाला परिग्रह को छोड़ता है- मूर्च्छा और का परित्याग करता है। फिर वह इस भावना का अभ्यास करता है कि मेरा कुछ भी नहीं है। इस अभ्यास से उसके अभिमान विकल्प का विलय हो जाता है। उसे चित्त-समाधि प्राप्त हो जाती है।
जिससे चित्त चंचल होता है, वह ज्ञान समाधि का हेतु नहीं होता। समाधि चित्त की स्थिरता में ही निष्पन्न होती है। विकल्प और अशान्ति दोनों साथ-साथ जन्म लेते हैं। जैसे-जैसे विकल्प बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे अशांति बढ़ती जाती है। विकल्प को करने का पहला उपाय है चित्त की एकाग्रता। जैसे-जैसे अन्तरात्मा का बोध जागृत होता है, वैसे-वैसे हमारी चेतना बाह्य वस्तुओं से विरत श्जाती है और चित्त एकाग्र हो जाता है। हम सूचनात्मक ज्ञान का संकलन करें या न करें, यह यहां प्रस्तुत नहीं है। हम अपने अन्तश्चैतन्य को जागृत करें और उससे जो श्रुत (ज्ञान) की धारा प्रवाहित हो, उसका उपयोग करें। चित्त अपने आप समाहित होगा।
चेतना और शरीर- ये दोनों परस्पर मिले हुए हैं। स्थूल शरीर बदलता रहता है किन्तु सूक्ष्म शरीर और चेतना - ये दोनों धाराप्रवाह रूप में जुड़े रहते हैं। चेतना के द्वारा शरीर को ज्ञान का आलोक और शक्ति प्राप्त होती है। शरीर के द्वारा चेतना को अभिव्यक्ति मिलती है और शक्ति के प्रयोग का क्षेत्र मिलता है। दोनों पारस्परिक सहयोग के कारण अभिन्न जैसे प्रतीत होते हैं। यह अभेद बोध ही चेतना के शरीर निरपेक्ष विकास में अवरोध पैदा करता है। इस अभेद बोध की में राग और द्वेष पनपते हैं। उनके संस्कार चित्त को चंचल बनाए रहते हैं। उस चंचलता को मिटाने का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है भेद-विज्ञान - चेतना और शरीर में भिन्नता का बोध।
शरीर और चेतना भिन्न हैं यह हमने सुना या पढ़ा। हमें बोध हो गया कि शरीर अचेतन है, आत्मा चेतन है इसलिए वे दोनों भिन्न हैं। यह बोध केवल श्रुति-बोध है। इस बोध को हम साधना का आदि बिन्दु बना सकते हैं किन्तु इसे निष्पत्ति नहीं मान सकते। इस श्रुति-बोध को स्वयं का बोध बनाने के लिए दो प्रयोग किए जाते हैं-एक तप का और दूसरा चरित्र का हम कम खाते हैं या कुछ दिनों तक नहीं खाते। शरीर के लिए खाना जरूरी है और हम नहीं खाकर उसके नियम का अतिक्रमण करते हैं। उस अतिक्रमण का शरीर विरोध करता है। उस विरोध के काल में यदि हम भेद-ज्ञान का अनुभव कर चेतना को मुख्यता देते हैं तो भेद-विज्ञान अभ्यास के स्तर पर आ जाता है। हम आसन साधते हैं शरीर की मांग नहीं है कि हम दो या तीन घंटा एक आसन में बैठे रहें। हम ध्यान करते हैं। बाह्य वातावरण से हट जाते हैं और ज्ञात विषयों की विस्मृति हो जाती है। हम आने वाली हर कठिनाई को हंसते-हंसते झेल लेते हैं। ये सब तप और चारित्र के प्रयोग भेद-विज्ञान के प्रयोग हैं। इनके द्वारा हमारा भेद- विज्ञान पुष्ट होता है। हम इस बिन्दु पर पहुंच जाते हैं कि जो अप्रिय लग रहा है, कष्ट हो रहा है, वह सब दैहिक संस्कार के कारण हो रहा है। चेतना के धरातल पर कोई अप्रिय नहीं है, कोई कष्ट नहीं है। यह अनुभूति पुष्ट होकर चित्त की चंचलता पैदा करने वाली सभी बाधाओं को विलीन कर देती है और चित्त समाहित हो जाता है।
32. कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादात्म परिणामो लेश्या॥
कृष्ण, नील आदि पुद्गल द्रव्यों के निमित्त से जो आत्म-परिणाम होता है, उसे लेश्या कहा जाता है ।
33. कृष्ण-नील- कापोत-तेज:-पद्म-शुक्ला:।
लेश्या के छह प्रकार हैं
1. कृष्ण 2. नील 3. कपोत 4. तेजस् 5 . पद्म 6. शुक्ल
लेश्या
मनुष्य का शरीर पौद्गलिक है। उसके इन्द्रिय और सहायक मन भी पौद्गलिक हैं। उसकी सारी प्रवृत्तियों में पुद्गल का बहुत बड़ा योग रहता है।
पुद्गल के चार लक्षण हैं वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श। इन चारों में पहला वर्ण - रंग है । वर्ण के पांच प्रकार हैं- काला, पीला, नीला, लाल और सफेद। इनके मिश्रण से अनेक रंग उत्पन्न होते हैं। आधुनिक वैज्ञानिक रंग के सात प्रकार मानते हैं- लाल, हरा, पीला, आसमानी, गहरा नीला, काला और हल्का नीला।
उनके अनुसार सफेद रंग मौलिक नहीं है। वह सात रंगों के एकीकरण से बनता है।
रंगों का प्राणी-जीवन के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है । ये हमारे शरीर तथा मानसिक विचारों को भी प्रभावित करते हैं। लेश्या के सिद्धांत द्वारा इसी प्रभाव की व्याख्या की गई है।
वैज्ञानिक परीक्षणों के द्वारा रंगों की प्रति पर काफी प्रकाश डाला गया है। देखिए यंत्र
नाम प्रति
लाल गर्म
नारंगी गर्म
लाल-नारंगी बहुत गर्म
पीला गर्म किन्तु लाल-नारंगी से कम
हल्का गुलाबी गर्म
गाढ़ा गुलाबी गर्म
बादामी गर्म
हरा न अधिक गर्म, न अधिक ठंडा
नीला ठंडा