मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

व्यान - इसका स्थान हृदय है तथा गति सर्वत्वचा में है । गति, अंग को ऊपर-नीचे लाना, नेत्रादि को मूंदना खोलना आदि इसके कार्य हैं। यह अति भ्रमण, चिंता, खेल, विषम चेष्टा, रुक्ष-भोजन, भय, हर्ष एवं शोक से विकृत होती है। इसके परिणामस्वरूप पुरुषत्व की हानि, उत्साह-हानि, बल-हानि, चित्त की बेचौनी, अंगों में जड़ता आदि रोग उत्पन्न होते हैं। इसमें आकाश तत्त्व की प्रधानता होने के कारण इसका वर्णं सतरंगी इन्द्रधनुष जैसा होता है।
बहुत दिनों से बन्द मकान को खोलते ही दूषित वायु निकलती है। उससे कभी-कभी प्राणान्त तक हो जाता है। लोग भूत की कल्पना करते हैं पर वहां भूत का काम दूषित वायु ही करती है। सूर्यास्त के बाद बरगद आदि बड़े वृक्ष दूषित प्राणवायु छोड़ते हैं। उनके नीचे सोने वाले कभी-कभी मर जाते हैं। लोग वहां भी भूत की कल्पना करते हैं पर वहां भी भूत वही दूषित वायु होती है। प्राणवायु की शुद्धि - अशुद्धि को जानने वाला बहुत सारी कठिनाइयों से बच जाता है । अपान वायु दूषित न हो, इसका ध्यान रखना बहुत आवश्यक है। अधिक खाने, मलशुद्धि न होने तथा वेगों को रोकने से अपानवायु दूषित हो जाती है। मस्सा, नासूर आदि बीमारियां अपानवायु के दूषित होने से होती हैं। स्वभाव का चिड़चिड़ापन और मानसिक अप्रसन्नता भी दूषित अपानवायु के कारण होती है । आहार-शुद्धि, मलशुद्धि, अश्विनी मुद्रा और मूलबन्ध करने से अपानवायु की शुद्धि होती है। शरीर की अपानवायु को शुद्ध करने की क्रिया का नाम अपानायाम है। ऐसी कुछ क्रियाएं नीचे दी जाती हैं, जिन्हें विधिपूर्वक करके लाभ उठाया जा सकता है ।
१- प्रथम, पेट को सामने की ओर जितना फुला सकें, फुलाएं, फिर सिकोड़ें। नाभि को रीढ़ की हड्डी के साथ लगाने का प्रयत्न करें। इससे जहां अपान का अनुलोमन होता है, उसके साथ वीयं रक्षा भी होती है। अब दोनों हाथों को पेट पर रखें। अंगूठा पीछे रहे और अंगुलियां सामने की ओर हो। अब पेट को पूर्ववत् फुलाएं और बाएं हाथ से दायीं ओर दबाव डालें। दाएं हाथ से पीछे की ओर दबाव डालें। अब पेट को पीछे से बाएं-दाएं फुलाएं। इसी प्रकार कई दिनों तक अभ्यास करने से पेट स्वयं वायों से दायीं ओर होकर, फिर पीछे होकर बायीं ओर आ जाएगा। इसी प्रकार दायी ओर से चक्कर लगाने का अभ्यास करें । तत्पश्चात् पेट को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर गतियां देनी चाहिए। इससे पेट की सफाई हो जाती है और अपानवायु वश में हो जाता है।
२- खड़े होकर श्वास को बिलकुल बाहर फेंककर कांख के दोनों पार्श्वों को भीतर खींचने का खूब यत्न करें। मध्यप्रदेश नाभिस्थल ऊपर रहे। इसका अभ्यास करने के लिए सामने कोई भेज हो या अन्य वस्तु जिसे खूब अच्छी तरह पकड़ा और उठाया जा सके। अब हाथों के बल सीधा ऊपर उठा जाए और वही क्रिया की जाए। नल स्वयं बाहर निकलेगा। अब बिना मेज के दोनों हाथों को घुटनों पर रखकर श्वास बाहर फेंककर कुक्षि-प्रदेश अन्दर खीचें। जब नल निकलने लग जाए तब श्वास चाहे अन्दर हो या बाहर, श्वास को बाहर रोककर नल निकाला जा सकता है और उसे आगे-पीछे खूब अच्छी तरह हिलाया जा सकता है। इस क्रिया से अपानवायु वश में होती है व पेट की बहुत-सी बीमारियां दूर हो जाती है।
३- आपने बहुत बार कुत्ते या बिल्ली को अंगड़ाई लेते देखा होगा। ठीक इसी प्रकार की स्थिति में हो जाइए। हाथों को सीधा आगे पसारिए। जमीन पर ठोड़ी या गाल लगे और घुटने अलग करके रखें। कमर को जितना हो सके झुकाएं। अब अपान को बाहर करने का प्रयत्न करें। उसके बाद स्वयं ही अपान अन्दर आने की कोशिश करेगा। इससे अफरा, सिरदर्द दूर होते हैं। अपानायाम में सिर्फ पूरक व रेचक ही करना चाहिए, कुम्भक नहीं। पेट को बिलकुल ढीला छोड़ देने से वायु बाहर हो जाता है।
प्राण, अपान आदि की विधिवत् साधना करने वाला बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार की उपलब्धियों से सम्पन्न होता है। सोमदेव सूरि के अनुसार जो व्यक्ति पवन के प्रयोग में निपुण होता है, वह सिद्ध और सर्वज्ञ जैसा हो जाता है-
पवनप्रयोगनिपुणः सम्यक् सिद्धो भवेदशेषज्ञः
७- नासादिषु स्वस्वस्थानेषु रेचक पूरक- कुम्भकं स्तज्जयः म।।
पांचों वायुओं के जो अपने-अपने विचरण-स्थान है, वहां संकल्पपूर्वक रेचक, पूरक और कुम्भक करने से इन पर विजय प्राप्त होती है।
८- यें पें वें रौ लौं तद्ध्यानबीजानि ।।
पांचों वायुओं के ध्यान-बीज इस प्रकार हैं-
१- प्राण -यैं २- अपान -पैं
३- समान -वैं ४- उदानकृ -रौं
५- व्यान -लौं

वायु-जय की प्रक्रिया
पूर्ववर्ती सूत्रों में वायु के स्थानों का निर्देश किया गया है। जिस वायु को अपने वश में करने की अपेक्षा होती है, उस पर मन को केन्द्रित करना आवश्यक होता है। प्राणवायु का मुख्य स्थान नासाग्र है। उसे अपने वश में करने के लिए नासाग्र पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। नासाग्र के द्वारा प्राण का आगम और निर्गम होता है। वहां मन को उसी प्रकार नियोजित करना चाहिए जिस प्रकार एक प्रहरी द्वार से जाने-आने वाले लोगों पर ध्यान केन्द्रित किये खड़ा रहता है। लम्बे समय तक प्राणवायु के आगम और निर्गम पर ध्यान केन्द्रित करने से वह साधक के अधीन हो जाती है। फिर साधक उसे शरीर के जिस भाग में ले जाना चाहता है, या स्थापित करना चाहता है, मन की गति के साथ वह वहीं चली जाती है या स्थापित होती है । इस प्रकार अन्य वायुओं पर भी ध्यान को केन्द्रित कर उन्हें अपने अधीन किया जा सकता है।
प्रत्येक वायु स्वाभाविक ढंग से अपना- अपना काम करती है किन्तु ध्यान के द्वारा उनमें विशेषता लायी जा सकती है और उनकी शक्ति का संवर्धन किया जा सकता है। इस कार्य के सम्पादन में प्राणायाम का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। रेचक के द्वारा उनके दूषित तत्त्वों को बाहर फेंक दिया जाता है। पूरक के द्वारा उनकी शक्ति को पुष्ट किया जाता है और कुम्भक के द्वारा उनकी कार्य-क्षमता को जागृत किया जाता है। साधक संकल्पपूर्वक रेचक, पूरक और कुम्भक कर वायु को अपने अधीन बना लेता है और फिर वह उनके द्वारा इष्ट कार्य का सम्पादन करता है। वायु पर ध्यान केन्द्रित करते समय उसके ध्यान-बीजों का भी आलम्बन लेना चाहिए।
90- जठराग्निप्राबल्यं वायुजयः शरीरलाघव×च प्राणस्य लब्धयः ।।
१0. व्रणसंरोहण- अस्थिसन्धान-अग्निप्राबल्य-मलमूत्राल्पता व्याधिजयः अपान- समानयोः म
११- पंक-- कण्टकबाधाऽभाव उदानस्य म।।
१२- ताप पीड़ाऽभावः आरोगित्व×च व्यानस्य ।।
१३- चन्द्रनाड्या वायुमाकृष्य पादाङ् गुष्ठान्तं तन्नयनं क्रमशः पुनरुन्नयन पुनर्नयन×च मनः स्थैर्याय ।।
१४- पादाङ्गुष्ठतो लिङ् गपर्यन्तं वायुधारणेन शीघ्रगतिर्बलप्राप्तिश्च ।।
१५- नाभी तद्धारणेन ज्वरादिनाशः ।।
१६- जठरे तद्धारणेन कायशुद्धिः ।।
१७- हृदये तद्धारणेन ज्ञानोपलब्धिः ।।
१८- कूर्मनाइयां तद्धारणेन रोगजराविनाशः ।।
१9- कण्ठकूपस्य निम्नभागे स्थिता कुण्डलिसर्पाकारा नाडी कूर्मनाडी ।।
२0- कण्ठकूपे तद्धारणेन क्षुत्तृषाजयः ।।
२१- जिह्वा तद्धारणेन रसज्ञानम् ।।
२२- नासाग्रे तद्धारणेन गन्धज्ञानम् ।।
२३- चक्षुषोस्तद्धारणेन रूपज्ञानम् ।।
२४- कपाले तद्धारणेन क्रोधोपशमः ।।
२५- ब्रह्मरन्धे तद्धारणेन अदृश्यदर्शनम् ।।
9- प्राणवायु को जीतने से जठराग्नि प्रबल होती है। वायु जीत लिया जाता है और शरीर में हल्कापन आ जाता है।
१0- अपान और समान वायु को जीतने से ये फल प्राप्त होते हैं-
१- व्रणसंरोहण - घाव मिटना ।
२- अस्थि-संधान - हड्डी जुड़ जाना
३- जठराग्नि की प्रबलता ।
४- मल और मूत्र की अल्पता ।
५-व्याधि पर विजय ।
११- उदान वायु पर विजय प्राप्त करने पर कीचड़, कांटे आदि बाधक नहीं बनते । लघुता प्राप्त होने से फंसना, चुभना आदि नहीं होते ।
१२- ताप और पीड़ा का अभाव तथा नीरोगता कृये व्यान वायु की विजय के कार्य या फल हैं।
१३- बाएं स्वर को चन्द्रनाड़ी तथा दाएं स्वर को सूर्यनाड़ी कहा जाता है। चन्द्रनाड़ी से पवन का आकर्षण कर उसे पैरों के अंगूठे तक ले जाना, क्रमशः उसे फिर ऊपर लाना, फिर नीचे ले जाना - इस प्रकार ऊपर- नीचे लाने-ले जाने से मन की स्थिरता प्राप्त होती है ।
१४- पादांगुष्ठ से लिंग पर्यन्त वायु को धारण करने से शीघ्र गति और बल की प्राप्ति होती है।
१५- नाभि में वायु को धारण करने से ज्वर आदि रोग नष्ट होते हैं
१६- जठर में श्वायु को धारण करने से शरीर की शुद्धि होती है, मल क्षीण हो जाते हैं
१७- हृदय में वायु को धारण करने से ज्ञान की उपलब्धि होती है।
१८- कूर्मनाड़ी में वायु को धारण करने से रोग और बुढ़ापा नष्ट होता है।
१9- कण्ठकूप के निचले भाग में कुण्डली मुद्रा में बैठे हुए सर्प के आकार की जो नाड़ी है, उसे कूर्मनाड़ी कहा जाता है।

(क्रमशः)