संबोधी
- बंधन मुक्ति सहसा नहीं सध जाती । वह क्रमशः होती है। व्यक्ति के कमिक अभ्यास से वह प्राप्त होती है । दशवैकालिक सूत्र में मुक्ति के क्रम का बहुत सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। ज्ञान के विकास के साथ-साथ अहिंसा का विकास होता है। अहिंसा साधन है, साध्य है मुक्ति । जीव और अजीव का ज्ञान अहिंसा का आधार है और उसका फल है, मुक्ति। इन दोनों के बीच में साधना का क्रम चलता है। मुक्ति का आरोह क्रम इस प्रकार हैं -
१- जीव - अजीव का ज्ञान । २ - जीवों की बहुविध गतियों का ज्ञान ।
३ - पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष का ज्ञान । ४ - भोग - विरक्ति ।
५ - आंतरिक और बाह्य संयोग - त्याग द्य ६ - अनगार-वृत्ति ।
७ - अनुत्तर - संवरयोग की प्राप्ति । ८ - स्वरूप बाधक कर्मों का विलय ।
९ - केवलज्ञान, केवलदर्शन की उपलब्धि । १0 - अयोग अवस्था ।
११ - सिद्धत्व प्राप्ति ।
प्रस्तुत श्लोकों में इन सबका समावेश पांच तथ्यों में दिया गया है-
१ - मोह - संवरण, २ - व्रत- ग्रहण, ३ - अप्रमत्त अवस्था की प्राप्ति,
४ - अकषाय वीतराग अवस्था की प्राप्ति और ५ - अयोग - संपूर्ण नैष्कर्म की प्राप्ति ।
२३ - संवृतात्मा नवं कर्म, नादत्तेऽनास्रवो यतिः।
अकर्मा जायते कर्म, क्षपयित्वा पुरार्जितम् म
संवृत आत्मा वाला यति नए कर्मों का ग्रहण नहीं करता। उसके आस्रव रुक जाते हैं और वह पूर्व अर्जित कर्मों को क्षीण कर, अकर्मा हो जाता है ।
२४- अतीतं वर्तमानं च, भविष्यच्चिरकालिकम् ।
च, सर्वथा मन्यते त्रायी, दर्शनावरणान्तकःम
दर्शनावरणीय कर्म का अंत करने वाला यति चिरकालीन अतीत, वर्तमान और भविष्य को सर्वथा जान लेता है और वह सभी जीवों का रक्षक होता है।
२५ - अन्तको विचिकित्सायाः, सर्वं जानात्यनीदृशम् ।
अनीदृशस्य शास्ता हि यत्र तत्र न विद्यतेम।।
जो विचिकित्सा-सन्देहों का अंत करने वाला है, वह तत्वों को कैसे जानता है, जैसे दूसरा नहीं जान पाता। असाधारण तत्त्व का शास्ता जहां-तहां नहीं मिलता।
सफलता उसे ही वरण करती है जो आस्थावान् और संदेह-रहित होता है। संशयशील व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान क्यों न हो, वह लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। श्रेष्ठी-पुत्र अपने ही अविश्वास से विद्या-सिद्धि में असफल रहा; जबकि चोर विद्या साध कर आकाश मार्ग में उड़ गया। ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञान’ - ज्ञान का विकास पूर्ण विश्वास से ही फलित होता है। श्रृद्धालु व्यक्ति में जैसी ज्ञान की स्फुरणा होती है वैसी दूसरे में नहीं होती।
(क्रमशः)