उपासना

स्वाध्याय

उपासना

जैन जीवनशैली
 
इस दुनिया में सबसे ज्यादा मूल्यवान् है जीवन और भी बहुत सारी वस्तुएं हैं,  जिनका मूल्य है किंतु तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो सबसे अधिक मूल्य है जीवन का। जीवन के होने पर सबकुछ है। जीवन न हो तो कुछ भी नहीं है। जिसके होने पर अन्य सबका अस्तित्व सामने आता है, उसका मूल्य कितना हो सकता है, इसको हर कोई समझ सकता है।
व्यक्ति का सारा प्रभाव उसकी जीवनशैली पर निर्भर है। प्रश्न हैकृ आदमी जीता कैसे है? जीना एक बात है और कैसे जीना, बिलकुल दूसरी बात है। यदि वह कलात्मक ढंग से जीता है तो जीवन बहुत सार्थक और सफल बन जाता है। यदि वह जीवन को जीना नहीं जानता, जीने की कला को नहीं जानता तो जीवन नीरस, बोझिल और निरर्थक जैसा प्रतीत होने लग जाता है। इसलिए आवश्यक है जीवनशैली का ज्ञान। वर्तमान की जीवनशैली अच्छी नहीं मानी जा रही है। इसके कई कारण हैं। भाग-दौड़, स्पर्धा, उतावलापन, हड़बड़ी आदि-आदि ऐसे तत्त्व जीवन में समा गये हैं, जो जीवन को सार्थक नहीं बना रहे हैं। शरीर स्वस्थ रहे, यह जीवन का एक लक्ष्य है। दूसरा लक्ष्य है मन स्वस्थ रहे, प्रसन्न रहे। तीसरा लक्ष्य हैकृ भावनाएं स्वस्थ रहें, निर्मल रहें, निषेधात्मक विचार न आएं, विधायकभाव निरंतर बने रहें, मैत्री और करुणा का विकास होता रहे। ये सब जीवन के उद्यान को हरा-भरा बनाने के लिए जरूरी हैं।
आज चारों ओर से एक स्वर सुनाई दे रहा हैकृ वर्तमान की जीवनशैली अच्छी नहीं है, उसमें परिवर्तन होना चाहिए, वह बदलनी चाहिए। आचार्य तुलसी ने भी इस स्वर को सुना, युग की भावना और उसकी नब्ज को पहचाना, पकड़ा। उन्हें लगा कि सचमुच ! जीवनशैली बदलनी चाहिए। किन्तु जीवनशैली कैसे बदले ? यह एक बड़ा प्रश्न है। जैनधर्म की जो जीवनशैली है, वह वीतरागता की शैली है। इस रागात्मक दुनिया में, और धन के प्रति अत्यधिक आकर्षण वाली इस दुनिया में यदि कोई समाधान हो सकता है तो वह वीतरागता का समाधान है। वीतरागता की ओर जाने वाली जीवनशैली सचमुच एक समाधान है। इस सचाई को ध्यान में रखकर योगक्षेम वर्ष में जीवनशैली के नौ सूत्रों का निर्धारण किया गया। वह नौ सूत्रात्मक जीवनशैली वर्तमान की अनेक समस्याओं का समाधान देती है।
 
सम्यक् दर्शन
जैन जीवनशैली का पहला सूत्र हैकृ सम्यक् दर्शन। मिथ्या दृष्टिकोण के कारण  आज हिंसा बहुत बढ़ रही है, आतंक बढ़ा है, एक-दूसरे के प्रति संदेह बढ़ा है, विश्वास घटा है। ऐसा लगता है जीवन कहीं सुरक्षित ही नहीं है। ऐसा कोई स्थल, कोई आश्वासन आदमी खोज नहीं पा रहा है। जहां उसे सुरक्षा मिलती हो। उसका हेतु हैकृमिथ्या दृष्टिकोण। इस मिथ्या दृष्टिकोण ने आदमी को इतना उलझा दिया है कि वह कोई निर्णय नहीं कर पा रहा है। राग संसारी प्राणी का एक जीवन-सूत्र होता है, किंतु जहां रागात्मक सीमा पार कर जाती है, वहां जीवन-सूत्र न बन कर मृत्यु-सूत्र बन जाती है। आज ऐसा लगता है कि रागात्मकता मृत्यु का सूत्र बनती जा रही है, क्योंकि उसके सामने कोई प्रतिरोधात्मक शक्ति नहीं यदि कोई प्रतिरोधात्मक शक्ति हो सकती है तो वह है वीतरागता ।
सम्यक् दर्शन वीतरागता का प्रतीक है। हमारा लक्ष्य बने वीतरागता । हमारा पथदर्शन बने वीतरागता । हमारा धर्म बने वीतराग। देव, गुरु और धर्म यह एक त्रिपुट है। एक वीतरागता का प्रतिपादन करने वाला, दूसरा वीतरागता का पथदर्शक और तीसरा वीतरागता का आचरण- यह सम्यक् दर्शन हमारी जीवनशैली का अंग बने तो सचमुच रागात्मक प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा। रागात्मकता के प्रति जो अति आकर्षण बढ़ा है, चाहे वह जाति, भाषा, प्रान्त आदि किसी भी संदर्भ में हो, उस पर एक अंकुश लगे तो निश्चय ही हमारी जीवनशैली एक शान्ति देने वाली, न्याय देने वाली, गरीब और अमीर के बीच की दीवार को मिटाने वाली शैली बनेगी। इस दृष्टि से प्रथम सूत्र बड़ा महत्त्वपूर्ण है। जीवनशैली का यहीं से प्रारंभ होता है। सम्यक् दर्शन प्रवेश द्वार है जैन जीवनशैली का। जिस व्यक्ति ने इस दरवाजे से प्रवेश किया है, उसके लिए आगे का रास्ता बहुत साफ है। उसके जीवन में सुख ही सुख होगा, उलझनें कम होंगी। 
(क्रमशः)