सभी पदों में श्रेष्ठ पद है श्रावक का पद: आचार्यश्री महाश्रमण
त्रिदिवसीय उपासक सेमिनार का पूज्यप्रवर की पावन सन्निधि में हुआ मंगल शुभारंभ
नंदनवन (मुंबई), 15 जुलाई, 2023
मोहमयी नगरी, मुंबई के नंदनवन परिवार में महातपस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी के पावन सान्निध्य में त्रिदिवसीय राष्ट्रीय उपासक सेमिनार का शुभारंभ हुआ। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस रमणीय स्थान पर आयोजित सेमिनार में देशभर से समागत उपासक-उपासिकाओं ने बड़े उत्साह के साथ भाग लिया।
पूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मार्मिक एवं प्रेरणास्पद उद्बोधन देते हुए फरमाया कि जैन आगम भगवती सूत्र में दस प्रकार की लब्धि का उल्लेख आता है-(1) ज्ञान लब्धि, (2) दर्शन लब्धि, (3) चारित्र लब्धि, (4) चरित्राचरित्र लब्धि, (5) दान लब्धि, (6) लाभ लब्धि, (7) भोग लब्धि, (8) उपभोग लब्धि, (9) वीर्य लब्धि और (10) इंद्रिय लब्धि।
ये दसों लब्धियाँ भौतिक लब्धियाँ नहीं हैं। इनका जुड़ाव चेतना की निर्मलता से है। ये चार घनघाति कर्मों के विलय से जुड़ी हुई हैं। ज्ञान लब्धि सबमें समान नहीं होती। कुछ लोग प्रखर ज्ञानी होते हैं। कुछ मध्यम ज्ञानी होते हैं। कुछ लोगों में ज्ञान की अल्पता भी हो सकती है। किसी की स्मृति शक्ति प्रखर होती है। किसी की स्मृति शक्ति कमजोर हो सकती है। समझ शक्ति भी सबकी अलग-अलग होती है। कइयों में ज्ञान तो बहुत होता है, लेकिन दूसरों को समझाने की कला इतनी अच्छी नहीं होती। वहीं कुछ लोग समझाने की कला में प्रवीण होते हैं। बौद्धिक कला का विकास ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होता है। इसके
लिए हमें ज्ञान और बुद्धि का सम्मान करना चाहिए। ज्ञान की अवज्ञा, अवहेलना, असम्मान करना अच्छा नहीं होता है। इससे ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है।
दूसरी लब्धि है दर्शन लब्धि। जिसका सम्यक्त्व पुष्ट होता है, उसकी दर्शन लब्धि पुष्ट होती है। कोई मिथ्यादृष्टि होता है, उसकी दर्शन लब्धि कम मात्रा में होती है। तीसरी लब्धि है चारित्र लब्धि यह केवल साधुओं को प्राप्त होती है। चौथी लब्धि का नाम है-चरित्राचरित्र लब्धि। यह लब्धि केवल श्रावकों में होती है। श्रावक बनना भी महत्त्वपूर्ण होता है। किसी आदमी को कोई पद प्राप्त होता है वह किसी संस्था में अध्यक्ष पद प्राप्त करता है तो किसी संस्था में उपाध्यक्ष पद या मंत्री पद भी प्राप्त कर सकता है। लेकिन ये पद स्थायी नहीं होते। ये पद कभी भी जा सकते हैं, लेकिन श्रावक का पद कभी जाता नहीं है। वह स्थायी होता है। उसे कोई छिन नहीं सकता। श्रावक की लब्धि जीवन भर बनी रह सकती है। इसलिए कहा जा सकता है कि श्रावक का पद सभी पदों में श्रेष्ठ पद है। कुछ-कुछ श्रावक तो चारित्रात्माओं के माँ-बाप तुल्य होते हैं। वे साधु-संतों का बहुत ध्यान रखते हैं। वे साधु-संतों को भोजन, दवाई, वस्त्र आदि का दान देते हैं। सुपात्र दान देकर श्रावक साधु के संयम की सुरक्षा में सहयोगी बन सकता है।
पूज्यप्रवर ने दान लब्धि, लाभ लब्धि, भोग, उपभोग और वीर्य लब्धि के विषय में विस्तार से विश्लेषण किया। दसवीं लब्धि इंद्रिय लब्धि की विवेचना करते हुए पूज्यप्रवर ने फरमाया कि हमें पाँचों इंद्रियाँ प्राप्त हुई हैं, यह बहुत बड़ा सौभाग्य है। कई ऐसे जीव हैं, जिन्हें केवल एक इंद्रिय-स्पर्शनेंद्रिय ही प्राप्त है। कई जीवों को केवल दो-तीन या चार इंद्रियाँ ही प्राप्त हैं। मनुष्य पंचेन्द्रिय प्राणी है। पाँच इंद्रियाँ प्राप्त होने के कारण ही मनुष्य इतना विकास कर पाया है। कभी कोई एक इंद्रिय पूर्ण शक्तिवान नहीं होती है, तो जीवन में बाधा उत्पन्न होती है।
पाँचों इंद्रियाँ पूर्ण विकसित अवस्था में प्राप्त होना यह विशेष उपलब्धि की बात होती है। पूज्य आचार्यप्रवर ने कालू यशोविलास (पूज्य गुरुदेवश्री तुलसी की कृति) का मारवाड़ी शैली में रोचक व्याख्यान फरमाया। जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित मुनि हेमराजजी की आत्मकथा ‘गुरुकृपा’ का लोकार्पण जैविभा एवं मुंबई चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति द्वारा किया गया। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने महत्त्वपूर्ण उद्बोधन में कहा कि आज दुनिया में असत्य का पाप बहुत पल रहा है। बाकी सारे पाप एक तरफ और असत्य का पाप एक तरफ। अहिंसा की सुरक्षा के लिए मृषावाद-असत्य का त्याग बहुत जरूरी है। जो व्यक्ति परम पद को प्राप्त करना चाहता है उसे मृषावाद से अवश्य बचना चाहिए।
मुनि दिनेश कुमार जी ने प्राग् उद्बोधन में इलाची कुमार की कथा के माध्यम से अनासक्त चेतना के विकास की प्रेरणा दी। मुनि गौरव कुमार जी ने 16 की तपस्या का एवं मुनि जयेश कुमार जी व अनुशासन कुमार जी ने 15 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। प्रातःकालीन प्रवचन कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।