सब जीवों में होती है चेतना: आचार्यश्री महाश्रमण
नंदनवन (मुंबई), 14 जुलाई, 2023
शुभ योग साधक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भगवती सूत्र आगम के आठवें शतक की व्याख्या करते हुए फरमाया कि शास्त्रकार ने कहा है कि हर आत्मा में अवबोध-बोध होता है। सिद्ध हो या संस्कारी कोई भी आत्मा ऐसी नहीं हो सकती जो बोध-शून्य हो। चेतना सब जीवों में होती है। सिद्ध तो निरंजन, निराकार, संपूर्ण केवलज्ञान मय होते हैं।
संसारी छोटे से छोटे जीव में अवबोध-चेतना उद्घाटित होती है। मति-श्रुत ज्ञान या मति-श्रुत अज्ञान दोनों में से एक या युगल हर छद्मस्थ जीव में अवश्य होता है। संसारी जीव में ज्ञान चेतना थोड़ी सी भी न रहे तो जीव अजीव हो जाता है। जीव का लक्षण है-उपयोग यानी चेतना का व्यापार। जैन दर्शन में बारह उपयोग बताए गए हैं, उनमें से कुछ-न-कुछ उपयोग तो हर आत्मा में होते हैं। गौतम स्वामी भगवान से ज्ञान के बारे में प्रश्न पूछते हैं कि भंते! ज्ञान कितने प्रकार के होते हैं। भगवान ने उत्तर दिया-गौतम! ज्ञान पाँच प्रकार के बताए गए हैं-अभिनिबोधित ज्ञान (मति ज्ञान), श्रुत ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनः पर्यव ज्ञान और केवल ज्ञान। तीन अज्ञान व चार दर्शन भी होते हैं।
अज्ञान दो प्रकार का होता है-(1) ज्ञान का अभाव (2) मिथ्या दृष्टि का बोध अज्ञान। ज्ञान का अभाव ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जुड़ा है। मिथ्या दृष्टि का बोध ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से निष्पन्न होने वाला होता है। मति और श्रुत ज्ञान इंद्रिय और मन से जुड़े होते हैं। शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष होते हैं, जो आत्मा से जुड़े होते हैं।
एक चौथी और मिट्टी के उदाहरण से समझाया कि ज्ञानावरणीय कर्म एक आवरण है, जो हटते ही केवल ज्ञान हो जाता है, जो क्षायिक भाव वाला ज्ञान है। केवल ज्ञान वापस नहीं जा सकता। दूसरे ज्ञान वापस हो सकते हैं। अवधि ज्ञान व मनःपर्यव ज्ञान सीमित हैं, जबकि केवलज्ञान असीमित है। इससे बड़ा और कोई ज्ञान नहीं हो सकता। यह वीतरागता पर आधारित है।
अज्ञान मोह का नाश हो तो सर्व ज्ञान का प्रकाश हो सकता है। जिसे केवल ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वह केवल दर्शनी भी हो जाता है। मोहनीय कर्म समाप्त होते ही शेष तीनों घाति कर्म क्षय हो जाते हैं। सर्वज्ञ अनेक जीव हुए हैं। हमारी ज्ञान चेतना विकसित होती रहे, यह काम्य है। कालू यशोविलास की सुंदर व्याख्या के काम को आगे बढ़ाते हुए परम पावन ने वि0सं0 1991 जोधपुर चातुर्मास के समय बाल दीक्षा के विरोध के प्रसंग को विस्तार से समझाया। 21 रंगी तपस्या से संलग्न तपस्वियों एवं अन्य तपस्वियों को तपस्या के प्रत्याखान करवाए।
उपासक प्रशिक्षण शिविर का मंचीय कार्यक्रम
वर्तमान में उपासक श्रेणी प्रशिक्षण शिविर चल रहा है। इस बार लगभग 89 नए संभागी हैं। पूज्यप्रवर ने पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि उपासक श्रेणी परम पूज्य गुरुदेव तुलसी के समय शुरू हुई थी। उनका ही आशीर्वाद है कि ये श्रेणी उत्तरोत्तर विकास कर रही है। उपासना भाग 1 व 2 पुस्तकें भी उपासक श्रेणी से जुड़ने वालों के लिए उपयोगी हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी का इस श्रेणी को आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
उपासक श्रेणी जैन धर्म तेरापंथ शासन से जुड़ी है, अपने संप्रदाय की चीज है। पौधा था जो विस्तार पा रहा है। लगभग 200 से ऊपर ग्रुप पर्युषण यात्रा में जगह-जगह जाकर धर्माराधना का काम करते हैं। स्थानीय स्तर पर भी काम होता रहे। भादुड़ी तेरस जैसे संघीय कार्यक्रमों एवं संथारा लेने वालों को त्याग-प्रत्याख्यान एवं धार्मिक, आध्यात्मिक सहयोग करते रहें। अनेक संदर्भों में ये श्रेणी उपयोगी हो सकती है। इस श्रेणी को गृहस्थ जीवन के धर्म प्रचारक कह सकते हैं। उपासक श्रेणी के सदस्यों के संस्कार भी अच्छे हों। धर्मसंघ की रीति-नीति की जानकारी भी रहे। अभी नए उपासक बनने वालों का शिविर लगा है। शिविर के बाद भी लक्ष्य रहे कि ज्ञान बढ़ता रहे, विकास होता रहे।
उपासक श्रेणी के राष्ट्रीय संयोजक सूर्यप्रकाश सामसुखा ने इस श्रेणी के महत्त्व को समझाते हुए कहा कि उपासक श्रेणी एक ऐसा माध्यम है, जो व्यक्ति की आत्मा का ऊर्ध्वारोहण करने वाली है। पूर्व राष्ट्रीय संयोजक सुमेरमल सुराणा ने कहा कि उपासक श्रेणी में सादगी और संयम का विकास हो। शिविरार्थी तरुण गुंदेचा एवं रीतु आहूजा ने शिविर के अनुभव बताए। नवी मुंबई जीतो के महामंत्री रोशनलाल बड़ाला ने कहा कि आचार्यश्री महाश्रमण जी जैन एकता के एक उदाहरण स्वरूप हैं। उपासक प्राध्यापक डालिमचंद नौलखा आदि उपासकों ने पुस्तक ‘उपासक श्रेणी प्रगति विवरण’ श्रीचरणों में अर्पित की। पूज्यप्रवर ने आशीर्वाद फरमाया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने श्रावक संबोध के माध्यम से नव तत्त्वों को विस्तार से समझाया।