संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
 
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
 
‘संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा।
नो विणमंति राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीवियं।।’
 
महावीर का संदेश हैµसंबोधि को प्राप्त करो। संबोधि के लिए ही जीवन उपयोगी है। आगे ऐसा अवसर दुर्लभ है। बीती हुई रात्रियाँ (क्षण) पुनः लौटकर नहीं आतीं और न यह मनुष्य जीवन भी पुनः सुलभ है।
केनोपनिषद् संबोधि की भाँति ‘परब्रह्म’ को जानने का आग्रह करता है। वह कहता हैµ
 
‘इह  चेदवेदीदथ  सत्यमस्ति,
न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।
भूतेषु  भूतेषु  विचिंत्य  धीराः,
प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।
 
‘इस मनुष्य जीवन में ही यदि परमात्मा को जान लिया तो बहुत अच्छा है। यदि नहीं जाना तो महान् विनाश है। धीर व्यक्ति प्राणी मात्र में परमात्मा को जानकर अमर हो जाते हैं, इस संसार में पुनः जन्म नहीं लेते।’
संबोधि जैन दर्शन का प्रिय शब्द है और इस पुस्तक का नाम भी ‘संबोधि’ है। संबोधि को सुनना ही नहीं है किंतु जीवन में घटित करना है। जैसे मेघ के जीवन में वह घटी, वैसे ही हम सबके जीवन में वह घटित हो सकती है। दुःख से मुक्ति के लिए यह अनिवार्य है। ‘आरुग्ग बोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं दिंतु’µमुझे आरोग्य, बोधि-लाभ और समाधि की प्राप्ति हो। यह एक विशुद्ध प्रार्थना है। इसके पीछे कोई भौतिक चाह नहीं है। जिस प्रार्थना में भौतिक मांग हो, वह प्रार्थना परमात्मा तक नहीं पहुँचाती। यह तो स्वभाव उपलब्धि की माँग है। साधक अपनी दुर्बलता स्वीकार करता है कि यह मेरे वश की बात नहीं है। आपका सहारा हो तो यह संभव है। वह छोड़ देता है उस अदृश्य शक्ति के हाथों में स्वयं को।
संबोधि स्वभाव है। वह व्यक्ति से दूर नहीं है। उसका न होना ही आश्चर्यजनक है, होना कोई आश्चर्यजनक नहीं। स्वभाव कभी अपने केंद्र से पृथक् नहीं होता। सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्रµये सभी संबोधि के ही रूप हैं। इसलिए कहा हैµधीर पुरुष अंत से चलते हैं। धीर का अर्थ हैµजो बुद्धि से सुशोभित है, जिसकी बुद्धि सत्य-शोध की ओर अभिमुख है। बुद्धि यदि यथार्थ गवेषणा में प्रवृत्त न हो तो वह यथार्थ में धीर या बुद्धिमान नहीं है। ‘बुद्धेः फलं तत्त्वविचारणा च’ बुद्धि की उपादेयता सत्य की खोज में है। ‘धीरा अंतेन गच्छन्ति’ बुद्धिमान् साधक का समग्र व्यवहार अपूर्व ढंग का होता है। वह अब वैसा आचरण, व्यवहार नहीं करता, जैसा अतीत में करता था। ‘अंत’ का अर्थ हैµआगे वैसा जीवन नहीं जीना। जीवन के समस्त पापों का अंत जागकर ही किया जा सकता है। साधना जागरिका’ है। जीवन का प्रत्येक चरण जागरिकापूर्वक उठे। अन्यथा प्रमाद का नाश कठिन है। जहाँ प्रमाद होगा वहाँ दुःख भी होगा। धीर पुरुष होश का सहारा लेकर दुःखों का अंत कर देते हैं।
(क्रमशः)