उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

जैन जीवनशैली

अनावश्यक हिंसा से बचने का सबसे पहला परिणाम होता हैµपर्यावरण के प्रदूषण की समाप्ति। आज पर्यावरण का जो प्रदूषण बढ़ रहा है, उसमें अनाश्यक हिंसा का बहुत बड़ा हाथ है। कितना पानी का अपव्यय, कितने जंगलों की कटाई, कितने पशु-पक्षियों का निर्ममता से शिकार, कितनी वनस्पतियों का विनाश, कितनी अनावश्यक भूमि का खनन और दोहनµयह सब अपने स्वार्थ के लिए इतनी मात्रा में हो रहा है कि वातावरण तेजी से प्रदूषित होता जा रहा है। यदि अनावश्यक हिंसा टल जाए तो पृथ्वी पर शांति कायम हो जाए, आदमी भी खुशहाल हो जाए।
अहिंसा के लिए आवश्यक हैµसंवेदनशीलता। दूसरे को कष्ट देते समय यह अनुभूति हो कि यह कष्ट मैं दूसरों को नहीं, स्वयं को दे रहा हूँ। यही संवेदनशीलता है। जिस समाज में संवेदनशीलता नहीं होती, वह समाज अपराधियों, हत्यायों या क्रूरता के खेल खेलने वालों का समाज बन जाता है। उसे सभ्य और शिष्ट समाज नहीं कहा जा सकता। इसलिए आवश्यक है कि समाज में संवेदनशीलता का विकास हो।
संदेह के कारण आज परस्पर शत्रुता का वातावरण बन रहा है। आदमी-आदमी के बीच, एक राष्ट्र और दूसरे राष्ट्र के बीच संदेह की खाई निरंतर चौड़ी होती जा रही है। मैत्री का विकास हो, संदेह मिटे, यह आवश्यक है। मैत्री की भावना उदात्त होती है तो अपने आप एक नए वातावरण की सृष्टि होती है, जीवन सुखद बनता है।
समण संस्कृति
जैन जीवनशैली का चौथा सूत्र हैµसमण संस्कृति। समण प्रतीक है समानता का। समण प्रतीक है उपशम और शांति का। समण प्रतीक है तपस्या, श्रम और पुरुषार्थ का। समण संस्कृति ने एक त्रिपथगा प्रवाहित की थी। यह भारत की एक पवित्र गंगा है, जिसने तीन पथों में विकास किया था, जिसके तीन आयाम बने थे।
समानता न केवल मनुष्य के प्रति, किंतु प्राणीमात्र के प्रति। जब तक प्राणीमात्र को समानता की दृष्टि से नहीं देखेगा, मनुष्य स्वयं को दूसरे के समान नहीं देख पाएगा। प्राणीमात्र के प्रति समत्व का भाव जागेगा, तभी हिंसा कम होगी। समण संस्कृति ने हिंसा के अल्पीकरण और अहिंसा के विकास की दिशा में जो प्रस्थान किया था, उसका पहला सूत्र बनता हैµसमानता।
समण संस्कृति ने दूसरा सूत्र दियाµश्रमशीलता। तपस्या, करना, स्वावलंबनµअपने श्रम पर भरोसा करना, यह श्रम की जीवनशैली है।
आज आदमी श्रम से जी चुरा रहा है, इसीलिए समस्याएँ भी पैदा हो रही हैं। वह स्वयं को बड़ा आदमी मान कर श्रम से कतराता है। काम करने के लिए नौकर है, फिर हमें काम करने की क्या जरूरत है? इतना श्रमपरांगमुख जीवन बन गया है आज के आदमी का।
एक आदमी सेठ के घर गया। बोलाµ‘सेठ साहब, बर्तन चाहिए।’
‘क्यों?’
‘कल शादी है।’
सेठ ने इधर-उधर देखकर उत्तर दियाµ‘अभी नहीं। यहाँ कोई आदमी नहीं है।’
कुछ देर बाद वह आदमी फिर लौटकर आया। बोलाµ‘सेठ साहब, बहुत जरूरी है। बर्तन देने की कृपा करें।’
सेठ ने इधर-उधर देखकर वही उत्तर दियाµ‘अभी कोई आदमी नहीं है।’
उस आदमी से रहा नहीं गया। तत्काल बोल उठाµ‘मैं तो आपको आदमी समझकर ही आया था।’
तब कितनी दयनीय दशा बन जाती है, जब आदमी अपने-आपको आदमी न माने और अपने कर्मचारी को आदमी माने। समण संस्कृति ने श्रम का सूत्र देते हुए कहाµ‘स्वयं पुरुषार्थ करो, अपने भरोसे पर जीने की आदत डालो।’
समानता, उपशम और स्वावलंबनµइन तीन सूत्रों को एक शब्द में कहा गयाµहमारी जीवनशैली समण संस्कृति की जीवनशैली बने, वह विषमता की जीवनशैली न बने, आवेश और उत्तेजना की जीवनशैली न बने, परावलंबन और निठल्लेपन की जीवनशैली न बने। (क्रमशः)