मनोनुशासनम्
आचार्य तुलसी
(17) जाति, कुल, विद्या, ऐश्वर्य आदि में जो हीन हों, उनका तिरस्कार न करना मार्दव है। मैं उत्तम जातीय हूँ और यह नीच जातीय है-इस प्रकार मद नहीं करना चाहिए। जो मद नहीं करता, उसके कर्म-संस्कार क्षीण होते हैं। जो मद करता है, उसके कर्म-संस्कार संचित होते हैं, इसलिए आने वाले मान का निग्रह करो और जो मान आ गया, उसे विफल करो।
(18) माया के निरोध को आर्जव कहा जाता है। जो ऋजु होता है, उसके कर्म-संस्कार क्षीण होते हैं। जो कुटिल होता है, उसके कर्म-संस्कार संचित होते हैं, इसलिए होने वाली माया का निग्रह करो और जो माया हो गई, उसे विफल करो।
(19) अलुब्धता को शौच कहा जाता है। जो लुब्धभाव नहीं रखता है, उसके कर्म-संस्कार क्षीण होते हैं। जो लुब्धभाव रखता है, उसके कर्म-संस्कार संचित होते हैं। इसलिए आने वाले लोभ का निरोध करो और जो लोभ आ गया, उसे विफल करो।
(20) जो सत्य बोलता है, उसके कर्म-संस्कार क्षीण होते हैं। जो असत्य बोलता है, उसके कर्म-संस्कार संचित होते हैं।
(21) हिंसा आदि अकरणीय कार्य से विरत होना संयम है। जो संयम करता है, उसके कर्म-संस्कार क्षीण्या होते हैं। जो असंयम करता है, उसके कर्म-संस्कार संचित होते हैं।
(22) संचित कर्मों का शोधन करने वाले पराक्रम को तप कहा जाता है। जो तप करता है, उसके कर्म-संस्कार क्षीण होते हैं, इसलिए तप का अभ्यास करो।
(23) संयमी को वस्त्र, पात्र, औषध आदि का संविभाग देने को त्याग कहा जाता है। जो संविभाग करता है, उसके कर्म-संस्कार क्षीण होते हैं, इसलिए संविभाग करो।
(24) अपने शरीर के प्रति जो निःसंगता होती है, निर्ममत्व होता है, उसे आकिंचन्य कहा जाता है। जो निःसंग होता है, उसके कर्म-संस्कार क्षीण होते हैं। जो आसक्त होता है, उसके कर्म-संस्कार संचित होते हैं, इसलिए आकिंचन्य का अभ्यास करो।
(25) जो ब्रह्मचर्य का भली-भाँति आचरण करता है, उसके कर्म-संस्कार क्षीण होते हैं। जो उसका सम्यग् आचरण नहीं करता, उसके कर्म-संस्कार संचित होते हैं, इसलिए ब्रह्मचर्य का आचरण करो।
महाव्रत
महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग का प्रतिपादन किया है। उसमें पहला अंग यम है। जैन साधना पद्धति का पहला अंग महाव्रत है। महाव्रतों को मूल गुण और शेष साधना के अंगों को उत्तर गुण माना जाता है। महाव्रतों के होने पर अन्य साधना के अंग विकसित हो सकते हैं। इनके न होने पर वे विकसित नहीं हो सकते। इसलिए महाव्रत मूल गुण हैं। सुदृढ़ आधार के बिना भवन की मंजिलों की कल्पना नहीं की जा सकती। वैसे ही मूल गुणों का स्थिर अभ्यास किए बिना धारणा, ध्यान और समाधि की कल्पना नहीं की जा सकती। इस दृष्टि से साधना के प्रसंग में महाव्रतों का प्राथमिक स्थान है।
महाव्रत के पाँच प्रकार हैं-(1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अस्तेय, (4) ब्रह्मचर्य, (5) अपरिग्रह।
इनमें मुख्य स्थान अहिंसा का है। शेष सब उसी का विस्तार है। अहिंसा के दो रूप होते हैं-(1) संकल्पकृत अहिंसा, (2) सिद्ध अहिंसा।
साधना के आरंभ में साधक अहिंसा का संकल्प स्वीकार करता है। इसमें मानसिक भूमिका सुपरिपक्व नहीं होती, इसलिए बार-बार उतार-चढ़ाव आता रहता है। हिंसा के संस्कार पुनः-पुनः उद्दीप्त होते रहते हैं। किंतु अहिंसा का संकल्प तथा उसकी सिद्धि का लक्ष्य होने के कारण साधक उस स्थिति का अनुभव करता हुआ भी आगे की ओर बढ़ता चला जाता है। वह निराश होकर न पीछे लौटता है और न रुकता है। आंतरिक शुद्धि का अभ्यास करते-करते कषाय क्षीण होता है, तब अहिंसा सिद्ध हो जाती है। उस स्थिति में साधक के मन में समता का पूर्ण विकास होता है। उसके मन में फिर शत्रु और मित्र का भेद नहीं रहता। जीवन के प्रति अनुराग और मृत्यु का भव नहीं रहता। हीन और उत्कर्ष की भावना समाप्त हो जाती है। निंदा से ग्लानि और प्रशंसा से उत्फुल्लता नहीं होती। मान और अपमान से उसका मानसिक संतुलन नहीं बिगड़ता। उसमें सहज संयम विकसित होता है और उसमें सब जीवों को आत्मतुल्य समझने की प्रज्ञा प्रकट हो जाती है।
अहिंसा के साथ-साथ व्यक्ति में ऋजुता प्रकट होती है, यही उसका सत्य पक्ष है।
अहिंसा से अपनी मर्यादा का विवेक जागृत होता है, इसलिए अहिंसक व्यक्ति दूसरों के स्वत्व का अपहरण नहीं करता, यही उसका अचौर्य पक्ष है।
अहिंसक व्यक्ति अपने इंद्रिय और मन पर अधिकार स्थापित करता है, यही उसका ब्रह्मचर्य पक्ष है।
अहिंसक व्यक्ति आत्मलीन रहता है। वह बाह्य वस्तुओं में आसक्त नहीं होता, यही उसका अपरिग्रह पक्ष है।
अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह का आध्यात्मिक मूल्य असीम होता है। ब्रह्मचर्य दो भागों में विभक्त है-(1) संकल्पसिद्ध ब्रह्मचर्य, (2) सिद्ध ब्रह्मचर्य।
सिद्ध ब्रह्मचर्य की भूमिका तक पहुँचना हमारा लक्ष्य है। शास्त्रों में ‘घोरबंभयारी’ शब्द आता है। वह एक विशेष प्रकार की लब्धि (योगज शक्ति) है। वह दीर्घकालीन साधना से उपलब्ध होती है। राजवार्तिक के अनुसार जिसका वीर्य स्वप्न में भी स्खलित न हो, वह घोर ब्रह्मचारी है। जिसका मन स्वप्न में भी अणुमात्र विचलित नहीं होता, उसे घोर ब्रह्मचर्य की लब्धि प्राप्त होती है। शुभ संकल्पों का अर्थ है-मैथुन-विरति या सर्वेन्द्रियोपरम। असत्य, चोरी आदि का संबंध मुख्यतः मानसिक भूमिका से है। ब्रह्मचर्य दैहिक और मानसिक दोनों भूमिकाओं से संबंधित है। अतः उसकी पालना के लिए शरीर-शास्त्रीय ज्ञान भी आवश्यक है। उसके अभाव में ब्रह्मचर्य को समझने में भी कठिनाई होती है।
अब्रह्मचर्य के दो कार हैं-(1) मोह, (2) शारीरिक परिस्थिति।
व्यक्ति जो कुछ खाता है, उसके शरीर में प्रक्रिया चलती है। उसकी पहली परिणति रस है। वह शोणित आदि धातुओं में परिणत होता हुआ सातवीं भूमिका में वीर्य बनता है। उसके बाद वह ओज के रूप में शरीर में व्याप्त होता है। ओज केवल वीर्य का ही सार नहीं है। वह सब धातुओं का सार है। शरीर में अनेक नाड़ियाँ हैं। उनमें एक काम-वाहिनी नाड़ी है। उसका स्थान पैर के अंगूठे से लेकर मस्तिष्क के पिछले भाग तक है। काम-वासना को मिटाने के लिए जो आसन किए जाते हैं, उन आसनों से इसी नाड़ी पर नियंत्रण किया जाता है। खाने से वीर्य बनता है। वह रक्त के साथ भी रहता है और वीर्याशय में भी जाता है। वीर्याशय में अधिक वीर्य जाने से अधिक उत्तेजना होती है और काम-वासना भी अधिक जागती है। ब्रह्मचारी के लिए यह एक कठिनाई है कि वह जीते-जी खाना नहीं छोड़ सकता। जो खाता है, उसका रस आदि भी बनता है, वीर्य भी बनता है। वह अंडकोश में जाकर संगृहीत भी होता है और वह वीर्याशय में भी जाता है। योगियों ने इस समस्या पर विचार किया कि इस परिस्थिति को विवशता ही माना जाए या इस पर नियंत्रण पाने का कोई उपाय ढूँढ़ा जाए? उन्होंने स्पष्ट अनुभव किया-वीर्य केवल वीर्याशय में जाएगा तो पीछे से चाप पड़ने से आगे का वीर्य बाहर निकलेगा, फिर दूसरा आएगा और वह भी खाली होगा। खाली होना और भरना यही क्रम रहेगा तो शरीर के अन्य तत्त्वों को पोषण नहीं मिलेगा। इसलिए उन्होंने वीर्य को मार्गान्तरित करने की पद्धति खोज निकाली। मार्गान्तरण के लिए ऊर्ध्वाकर्षण की साधना का विकास किया। उनका प्रयत्न रहा कि वीर्य वीर्याशय में कम जाए और ऊपर सहस्रार-चक्र में अधिक जाए। इस प्रक्रिया में वे सफल हुए। वीर्य को ऊर्ध्व में ले जाने से वे ऊर्ध्वरेता बन गए।
वीर्याशय पर चाप पड़ने का एक कारण आहार हैै। ब्रह्मचर्य के लिए आहार का विवेक अत्यंत आवश्यक है। अतिमात्र आहार और प्रणीत आहार दोनों वर्जनीय हैं। गरिष्ठ आहार नहीं पचता इसलिए वह कब्ज करता है। मलावरोध होने से कुवासना जागती है और वीर्य का क्षय होता है, इसलिए पेट भारी रहे उतना मत खाओ और प्रणीत आहार मत करो। संतुलित आहार करो, जिससे पेट साफ रहे। खाना जितना आवश्यक है, उससे कहीं अधिक आवश्यक है मल-शुद्धि। मल के अवरोध से वायु बनता है। वायु जितना अधिक बनेगा उतना ही अहित होगा। वायु-विकार से अधिक बचो। वीर्य को जब अधिक चाप होता है, तब ब्रह्मचर्य के प्रति संदेह उत्पन्न हो जाता है।
उत्तराध्ययन में कहा गया है-‘बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा।’
शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न होती है, भेद होता है, उम्माद होता है, दीर्घकालिक रोग और आतंक भी हो जाता है तथा केवलि-प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए कुछ एक साधनों की सूचना दी जाती है। उनका अभ्यास किया जाए तो वह निश्चित परिणाम लाएगा। इनमें पहला साधन वीर्य-स्तंभ प्राणायाम है। इसका दूसरा नाम ऊर्ध्वाकर्षण प्राणायाम भी है। सिद्धासन में बैठकर पूर्णरूप से रेचन करें। रेचनकाल में चिंतन करें, मेरा वीर्य रक्त के साथ मिलकर समूचे शरीर में व्याप्त हो रहा है। फिर पूरक करें-जालंधरबंध और मूलबंध करें। पूरककाल में पेट को सिकोड़ें और फुलाएँ। सिकोड़ने और फुलाने की क्रिया को पाँच-सात पूरकों में सौ बार दोहराएँ।
दूसरा ध्यान है। तीसरा अल्पकालीन कुंभक है। चौथ प्रतिसंलीनता है।
इंद्रियाँ चंचल होती हैं, पर वह उनकी स्वतंत्र प्रवृत्ति नहीं है। मन से प्रेरित होकर ही वे चंचल बनती हैं। मन जब स्थिर और शांत होता है, तब वे अपने आप स्थिर और शांत हो जाती है। मन अंतर्मुखी बनता है, तब इंद्रियाँ अंतर्मुखी हो जाती हैं। महर्षि पतंजलि ने इसी आशय से लिखा है-
स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्यस्वरूपानुकाल इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।
- पातंजल योगदर्शन-साधनापाद, 54
(क्रमशः)