अहिंसा की दृष्टि से सदा जागरूक रहें: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अहिंसा की दृष्टि से सदा जागरूक रहें: आचार्यश्री महाश्रमण

वीतराग वाणी के व्याख्याता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भगवती सूत्र के सातवें शतक के दसवें उद्देशक की व्याख्या करते हुए फरमाया कि कालोदायी अणगार ने भगवान से अग्निकाय के बारे में प्रश्न किया। एक पुरुष अग्निकाय को प्रज्ज्वलित करता है, दूसरा उसको बुझाने का कार्य करता है। इनमें ज्यादा पाप कर्म करने वाला कौन और अल्प पाप कर्म करने वाला कौन पुरुष है। भगवान ने फरमाया कि इन दोनों में जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्ज्वलित करता है, वह ज्यादा महापाप कर्म वाला और जो बुझाने वाला है, वह कम पाप कर्म करने वाला होता है। कालोदयी ने इसका कारण पूछा तो भगवान ने फरमाया कि अग्निकाय प्रज्ज्वलित करने वाला पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय की अधिक हिंसा करने वाला होता है, जबकि बुझाने वाला कम वेदना देता है।
अग्नि को जलाने व बुझाने में हिंसा का अंतर है। कारण अग्नि जलती रहेगी तो उसमें कई जीवों की हिंसा होती रहेगी। बुझाने से हिंसा का अल्पीकरण हो जाता है। गृहस्थों के जीवन में अग्नि का उपयोग होता है, पर ध्यान दें कि अनावश्यक हिंसा न हो। अन्य जीवों की भी हिंसा कम हो। अग्निकाय हिंसा का स्थान बन सकता है। छोटी-छोटी बातों पर हम ध्यान दें तो हिंसा से अहिंसा के मार्ग पर आ सकते हैं। अग्नि, पृथ्वी, जल, वायु एवं वनस्पति आदि से भी अनावश्यक हिंसा न होने पाए। इसके लिए अहिंसा की दृष्टि से हमेशा जागरूक रहने का प्रयास करें। कालू यशोविलास का सुमधुर सुंदर विवेचन करते हुए परम पुरुष ने पूज्य कालूगणी के जोधपुर चतुर्मास हेतु पधारते हुए मार्ग में जसोल, असाड़ा, कोरणा, परसते हुए जोधपुर पधारने की कृपा के प्रसंग को समझाया। पूज्यप्रवर ने 21 रंगी तपस्या से जुड़े तपस्वियों को प्रत्याख्यान करवाए।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने कहा कि आदमी का जीवन तीन प्रकार का होता हैµ(1) हिंसा का जीवन जीना, (2) पूर्ण रूप से अहिंसक जीवन जीना, (3) अल्पारंभ जीवन जीना। साधु तो पूर्णरूपेण अहिंसक होते हैं, पर गृहस्थ जीवन में आरंभ-संभारंभ चलता रहता है, पर उसमें भी गृहस्थ सीमा करें। हिंसा का अल्पीकरण करें। अनावश्यक हिंसा से बचें। आत्महत्या या भ्रूणहत्या जैसी हिंसा न हो। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।