मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

आचार्य तुलसी
(क्रमशः)
अपने विषयों के असंप्रयोग में चित्त के स्वरूप का अनुकरण जैसा करना इंद्रियों का प्रत्याहार कहलाता है। प्रत्याहार के स्थान पर जैन आयामों में प्रतिसंलीनता का उल्लेख है। औपपातिक सूत्र में इंद्रिय प्रतिसंलीनता के पाँच प्रकार बतलाए गए हैं।
इंद्रिय प्रतिसंलीनता के दो मार्ग हैं-विषय-प्रचार का निरोध और राग-द्वेष निग्रह। आँखों से न देखें, यह विषय-प्रचार का निरोध है। विषय के साथ संबंध स्थापित हो जाए, वहाँ राग-द्वेष न करना, राग-द्वेष निग्रह है। प्रतिसंलीनता का अर्थ है-अपने आप में लीन होना। इंद्रियाँ सहजतया बाहर दौड़ती हैं, उन्हें अंतर्मुखी बनाना प्रतिसंलीनता है। उसकी प्रक्रिया यह है-
कोई आकार सामने आए तो उसकी उपेक्षा कर भीतर में देखा जाए, वैसे ही भीतर से सुना जाए, सूँघा जाए, स्वाद लिया जाए और स्पर्श किया जाए। प्रतिसंलीनता के लिए कुंभक की आवश्यकता होती है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है-दायें नथुने से श्वास भरें। कुछ देर रोककर अंतःकुंभक करें। फिर बायें नथुने से श्वास को बाहर निकाल दें। कुछ देर बाह्यकुंभक करें। इस प्रकार एक बार कुंभक होता है। प्रतिदिन बारह-तेरह बार इसका अभ्यास करना चाहिए।
वीर्य की उत्पत्ति समान वायु से होती है। उसका स्थान नाभि है। इसलिए कुंभक के साथ नाभि पर ध्यान करें। पूरक करते समय संकल्प करें कि वीर्य नाड़ियों द्वारा मस्तिष्क में जा रहा है। संकल्प में ऐसी दृढ़ता लाएँ कि अपनी कल्पना के साथ वीर्य ऊपर चढ़ता दिखाई देने लगा। चाप में भी सहस्रार-चक्र पर ध्यान कर संकल्प करें कि नीचे खाली हो रहा है और ऊपर भर रहा है। वीर्य नीचे से ऊपर जा रहा है। ऐसा करने से वीर्य का चाप वीर्याशय पर नहीं पड़ेगा। फलतः उसकेचाप से होने वाली मानसिक उत्तेजना से सहज ही बचाव हो जाएगा। इस विषय में यौन-शास्त्रियों के अभिमत भी मननीय हैं।
विज्ञानविशारद स्कॉट हाल का मत है-अंड और डिम्ब ग्रंथियों के अंतःस्राव जब रक्त के साथ मिलकर शरीर के विभिन्न अंगों में प्रवाहित होते हैं तो वे युवक और युवती सर्वांगीण विकास में जादू की तरह नव-जीवन का प्रभाव छोड़ते हैं।
हेलेनाराइट ने इसके लिए बड़ा उपयोगी मार्ग बतलाया है-आत्मविकास के लिए कोई एक कार्य अपना लेना चाहिए और एकाग्रचित्त से दिन में कई बार यह सोचना चाहिए कि जननेन्द्रिय में केंद्रिय प्राणशक्ति सारे स्नायुमंडल में प्रवाहित होकर अंग-प्रत्यंग को पुष्ट कर रही है। थोड़े संयम में ही इस मानसिक सूचना से तन और मन नए चैतन्य से स्फूर्त एवं प्रफुल्ल हो उठेंगे।
इन साधनों के अतिरिक्त शास्त्रों का अध्ययन, मनन, चिंतन, व्युत्सर्ग आदि साधन भी मन को एकाग्र करने में सहायक होते हैं। ब्रह्मचर्य के लिए केवल मानसिक चिंतन ही पर्याप्त नहीं है, दैहिक प्रश्नों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। भोजन-संबंधी विवेक और मल-शुद्धि का ज्ञान भी कम महत्त्व का नहीं है। यदि उसकी उपेक्षा की गई तो मानसिक चिंतन अकेला पड़ जाएगा।
मानसिक पवित्रता, प्रतिभा की सूक्ष्मता, धैर्य और मानसिक विकास की सिद्धि के लिए उक्त साधनों का अभ्यास आवश्यक है।
ब्रह्मचर्य का शरीरशास्त्रीय अध्ययन
शरीर-शास्त्र के अनुसार शरीर में आठ ग्रंथियाँ होती हैं-
(1) श्लैष्मिक या पीयूष (पिच्यूटरी)
(2) कंठमणि (थाइरायड)
(3) वृषण
(4) सर्वकिण्वी (पैनक्रिया)
(5) एड्रीनल या सुप्रारीनल
(6) पैराथाइरायड
(7) तृतीय नेत्र (पीनियलबॉडी)
(8) यौवनलुप्त (थाइमस)
पीयूष ग्रंथि
यह ग्रंथि दिमाग के नीचे होती है। यह थाइरायड, पैराथाइरायड, एड्रीनल, पैनक्रिया व वृषण कोशों के स्रावों को नियंत्रित करती है। इस ग्रंथि के रसों का कार्य इस प्रकार है-
प्रथम रस का कार्य-शरीर-विकास।
द्वितीय रस का कार्य-शरीर के जल या नमक का संतुलन।
तृतीय रस का कार्य-गुर्दे के कार्य का नियंत्रण।
पीयूष ग्रंथि काम कम करे तो काम-शक्ति नष्ट हो जाती है।
कंठमणि ग्रंथि
यह गर्दन में श्वास नली से जुड़ी हुई होती है। इसका आकार तितली के समान होता है। इसका रसस्राव अधिक होने पर शरीर को अधिक पोषण की जरूरत होती है। क्षुधा बढ़ जाती है किंतु अन्य अंग साथ नहीं देते, इसलिए वह कमी पूरी नहीं होती। ऐसी स्थिति में दुर्बलता आ जाती है। इस ग्रंथ से रस कम निकले तो बुढ़ापा आ जाता है, सर्दी अधिक लगती है, भूख कम हो जाती है, शिथिलता और उदासी रहती है।
वृषण ग्रंथि
यह पुरुष के ही होती है। यह अंडकोशों में होती है। इसके रसस्राव से पौरुष जागता है और दाढ़ी-मूँछें आती हैं।
पैनक्रिया ग्रंथि
यह दो आँतों के बीच में होती है।
एड्रीनल या सुप्रारीनल ग्रंथि
ये दोनों ग्रंथियाँ गुर्दे के ऊपरी हिस्से में होती है। इनके स्राव शरीर के लिए बहुत आवश्यक होते हैं। इनसे साहस मिलता है। ये स्राव यकृत की चीनी को रक्त के द्वारा मांसपेशियों में ले जाते हैं। यह मांसपेशियों को जूझने की शक्ति देती है।
पैराथाइरायड ग्रंथि
कंठमणि के पास गेहूँ के दाने के बराबर चार ग्रंथियाँ होती हैं। इन्हें पैराथाइरायड कहा जाता है। ये रक्त में कैल्शियम, फासफोरस आदि का उचित संतुलन बनाए रखती हैं।
तृतीय नेत्र ग्रंथि
यह मस्तिष्क में होती है।
यौवनलुप्त ग्रंथि
यह सीने में होती है।
इनका कार्य आज्ञा है। प्रस्तुत विषय का संबंध वृषण ग्रंथियों से है। वृषण ग्रंथियाँ दो स्राव उत्पन्न करती हैं-बहिःस्राव और अंतःस्राव। धमनियों द्वारा वृषण-ग्रंथियों में रस-रक्त आता है। उसे प्राप्त कर दोनों स्रावों के उत्पादक अपने-अपने स्राव को उत्पन्न करते हैं।
वीर्य अंडकोश में उत्पन्न होता है। उसकी दो धाराएँ हैं-एक वीर्याशय, जो मूत्राशय और मलाशय के मध्य में हैं-में जाती है। दूसरी रक्त में मिलकर शरीर में दीप्ति, मस्तिष्क में शक्ति, उत्साह आदि पैदा करती है। वीर्याशय भरा रहे तो दूसरी धारा रक्त में अधिक जाती है। यह स्थिति शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद है। वीर्याशय खाली होता रहे तो वीर्य पहली धारा में इतना चला जाता है कि दूसरी को पर्याप्त रूप से मिल ही नहीं पाता। फलतः दोनों प्रकार के स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है। वीर्याशय खाली न हो, इसका ध्यान रखना स्वास्थ्य का प्रश्न है।
जीवन के दस स्थान हैं- (1) मूर्धा, (2) कंठ, (3) हृदय, (4) नाभि, (5) गुदा, (6) वस्ति,
(7) ओज, (8) शुक्र, (9) शोणित, (10) मांस।
ये दस स्थान दूसरे प्रकार से भी मिलते हैं-
1ः2 दो शंख-पटपड़ियाँ
3ः5 तीन मर्म-हृदय, वस्ति और सिर
6 कंठ, 7 रक्त, 8 शुक्र, 9 ओज, 10 गुदा।
ओज इन दोनों प्रकारों में है। वह (वीर्य) धातु का अंतिम सार नहीं, किंतु सातों धातुओं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र) का अंतिम सार है। उसका केंद्रस्थान हृदय है, फिर भी वह
व्यापी है।
इससे दो बातें निसपन्न होती हैं-
(1) ओज से संबंध केवल वीर्य से नहीं है।
(2) वीर्य का स्थान अंडकोश है, जबकि ओज का स्थान हृदय है।
ओज और वीर्य में तीसरा अंतर यह है कि वीर्य का मध्यम परिणाम ही लाभप्रद होता है। वह हीन मात्रा में हो तो क्षीणता आदि दोष बढ़ते हैं। वह अति मात्रा में हो तो उससे मैथुन की प्रबल इच्छा और शुक्राश्मरी (शुक्र-जनित पथरी) रोग उत्पन्न होता है।
ओज जितना बढ़े उतना ही लाभप्रद है। उसकी वृद्धि से मन की तुष्टि, शरीर की पुष्टि और बल का उदय होता है।
वीर्य-व्यय के दो मार्ग है।-(1) जननेन्द्रिय, (2) मस्तिष्क।

(क्रमशः)