संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
 
(30) यो धर्मं शुद्धमाख्याति, प्रतिपूर्णमनीदृशम्।
अनीदृशस्य यत्स्थानं, तस्य जन्मकथा कुतः।।
 
जो शुद्ध, परिपूर्ण और अनुपम धर्म का निरूपण करता है और वह अनुपम धर्म जिसमें ठहरता है, उसके पुनर्जन्म की बात कहाँ?
 
(31) आत्मगुप्तः सदा दान्तः, छिन्नस्रोता अनास्रवः।
स धर्मं शुद्धमाख्याति, प्रतिपूर्णमनीदृशम्।।
 
जो आत्म-गुप्त है, सदा दांत है, जिसने कर्म आने के स्रोतों को छिन्न कर दिया है और जो अनास्रव हो गया है, वह परिपूर्ण, अनुपम और शुद्ध धर्म का निरूण करता है।
यूनान के एक महान् संत से किसी ने पूछा-सबसे सरल क्या है? उसने कहा-उपदेश देना। दूसरा प्रश्न किया कि सबसे कठिन क्या है? संत ने उत्तर दिया-स्वयं को जानना। और यह बहुत ठीक है। सलाह देना, उपदेश देना-यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए सरल है। क्योंकि इसमें स्वयं को कुछ करना नहीं है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा है-कोई डुबकी लगाना नहीं चाहता। साधना नहीं, भजन नहीं, विवेक-वैराग्य नहीं, दो-चार बातें सीख लीं बस, लगे लेक्चर देने। जो व्यक्ति स्वयं जिस विषय ‘अ’ ‘आ’ भी नहीं जानता वह भी दूसरों को सलाह देने में तत्पर हो जाता है। ‘पिकासो’ जैसे चित्रकार दुनिया में विरले हुए हैं। लेकिन लोग सलाह देने उसके पास भी पहुँच जाते थे। उसने एक ‘सजेशन बाक्स’-सलाहों की पेटी बना रखी थी, जिसके नीचे कचरे की टोकरी थी। लोग आते। एक कागज पर सलाह लिखकर उस पेटी में डाल देते। पेटी के छेद से वह कागज नीचे रखी कचरे की टोकरी में चला जाता। उपदेशों के प्रभावहीन होने का कारण यह है कि व्यक्ति जैसा कहते हैं वैसा करते नहीं हैं। दूसरा कारण है-जिस विषय को स्वयं जानते नहीं हैं, उसके संबंध में कहते हैं।
एक विचारक ने लिखा है-लोग धर्म के संबंध में सुनते हैं, पढ़ते हैं, लिखते हैं, भाषण करते हैं। धर्म के लिए लड़ते हैं और मरते भी हैं। किंतु जीते नहीं। धर्म का जीवन में परिचय हो जाए तो फिर लड़ने और मरने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। धर्म का ह्रास उसके आत्मसात् नहीं होने के कारण ही हुआ है। धर्मगं्रथ स्वयं नहीं बोलते। वे तो अनुभवी पुरुषों के स्वर हैं, चेतना जगत् से उठे हुए शब्द हैं। उसका अर्थ चेतना जगत् में प्रवेश करके ही पाया जा सकता है।
धर्म की व्याख्या जब चैतन्य भूमि से हटकर बौद्धिक भूमिका पर आ जाती है तब धर्म शुद्ध नहीं रहता। उसका स्वरूप और कार्य एक होते हुए भी भिन्नता परिलक्षित होती है। उसका एकमात्र कारण है-अनुभूति के स्तर पर धर्म का न होना। यहाँ जो धर्म-प्रवक्ता के चार लक्षण प्रस्तुत किए हैं वे यह सूचित करते हैं कि उसे कैसा होना चाहिए, जिससे धर्म की ज्योति बुझने न पाए। तथागत कौन होते हैं-इसके संबंध में कहा है-जो जैसा कहता है वैसा करता है-वह तथागत होता है। खुद्दकनिकाय में कहा है-दूसरों को उपदेश करने से पहले पंडित अपने आपको उसके अनुरूप प्रशिक्षित कर ले जिससे कि बाद में क्लेश न उठाना पड़े। इससे यह स्पष्ट है, उपदेष्टा को केवल उपदेष्टा नहीं होना है किंतु उस उपदेश को जीना है। धर्म-प्रवक्ता को जिन चार विशिष्ट गुणों से विभूषित होना चाहिए, वे ये हैं- (क्रमशः)