उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

जैन जीवनशैली
इच्छा परिमाण
जैन जीवनशैली का पाँचवाँ सूत्र है इच्छा परिमाण। अनेकांत, अहिंसा और समण संस्कृति-इन तीनों को मिलाकर जो जीवनशैली का सूत्र बनता है, नवनीत के रूप में, निचोड़ के रूप में हमारे सामने आता है-वह है इच्छा परिमाण। विषमता पैदा करती है इच्दा की अति, श्रम परांगमुखता पैदा करती है इच्छा की अति और उत्तेजना पैदा करती है इच्छा की अति। वह हिंसा को जन्म देती है और अनेकांत की जीवनशैली को विकसित नहीं होने देती। इस अति अच्छा ने जीवन को बहुत असंतुलित कर दिया है। इच्छा परिमाण जीवनशैली का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। हम इच्छा का परिमाण करें। आखिर कहीं तो आदमी को रुकना होगा। कितना चलेगा वह? सम्राट् ने प्रसन्न होकर कहा-‘जितना दूर चल सको, उतनी भूमि तुम्हें मिल जाएगी।’ वह दिन भर बेतहाशा भागता रहा। जब शाम को रुका तो फिर खड़ा नहीं रह सका, गिर पड़ा और मर गया।
इच्छा की अति मृत्यु की जीवनशैली है। इच्छा पर अंकुश लगाना, उसका परिमाण करना, वैयक्तिक स्वास्थ्य का लक्षण है, सामाजिक स्वास्थ्य का लक्षण है। इच्छा के परिमाण का तात्पर्य यह नहीं है कि गृहस्थ भिखारी बन जाए, रोटी माँगकर खाएँ। यह एक गृहस्थ आदमी के लिए शोभा नहीं देता। इच्छा के अनुसार वह अपना जीवनयापन करता है, किंतु इतनी इच्छा न हो कि वह सबको निगलना चाहे और सारी संपदा को अपने पास ही देखना चाहे।
इच्छा की एक अति का समाधान है-विसर्जन। पूज्य गुरुदेव ने केरल की यात्रा में विसर्जन का सूत्र दिया था। यह एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है गृहस्थ के लिए, सामाजिक प्राणी के लिए। संग्रह और परिग्रह से उपजी विसंगतियों को मिटाने के लिए एक जीवंत सूत्र है-विसर्जन। अर्जन के साथ विसर्जन भी हो। ऐसा होता है तो फिर इच्छा पर अंकुश लग जाएगा।
समाज को बनाता और गिगाड़ता है आर्थिक ढाँचा। अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों और राजनेताओं ने इस सचाई को अनेक बार प्रतिपादित किया है-अर्थ के आधार पर समाज बनता और बिगड़ता है। एक बहुत बड़ी सचाई है इस बात में। आज यह देखकर आश्चर्य होता है कि समाजवाद और साम्यवाद की बात करने वाले भी अच्छा परिमाण की बात को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, व्यक्तिगत स्वामित्व को सीमित नहीं किया जा रहा है। जहाँ व्यक्तिगत स्वामित्व असीम होगा, इच्छा अनंत होगी, उस पर कोई नियंत्रण नहीं होगा, वहाँ समाज कभी स्वस्थ नहीं रहेगा। इस संदर्भ में आध्यात्मिक दृष्टि से सामाजिक और व्यावहारिक दृष्टि से इच्छा के परिमाण का सूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है।
सम्यक् आजीविका
जैन जीवनशैली का छठा सूत्र है-सम्यक् आजीविका। जीविका एक सामाजिक प्राणी के लिए आवश्यक है। जीवन निर्वाह के लिए आदमी कोई न कोई धंधा, व्यवसाय, व्यापार करेगा। किंतु जरूरी है कि आजीविका असम्यक् न हो। इस पर ध्यान देना उतना ही आवश्यक है, जितना आजीविका पर। मांस का व्यापार, अंडों का व्यापार, मदिरा का व्यापार ऐसे व्यापार हैं, जो आजीविका को सम्यक् नहीं रहने देते। जैन जीवनशैली को समझने वाला व्यक्ति इन व्यवसायों से हमेशा अपने-आपको बचाना चाहेगा। ऐसे व्यवसाय, जिनसे समाज में अपराध बढ़ते हैं, क्रूरता बढ़ती है, लूट-खसोट बढ़ती है, सम्यक् आजीविका के साधन नहीं बनते। इसलिए आजीविका के प्रश्न पर विचार करना जरूरी है।
सम्यक् आजीविका का सबसे बड़ा शत्रु है-तस्करी। शास्त्रों का व्यापार आज शायद हिंसा और आतंक को बढ़ाने में सबसे बड़ा हेतु बन रहा है। यदि शास्त्रों की खुली छूट न हो, इनकी बिक्री पर प्रतिबंध हो तो अपने आप ही आतंक कम होता है। सरेआम शास्त्रों का प्रदर्शन होते देख आम आदमी के मन में भी इनके प्रति आकर्षण जागता है और चाहे-अनचाहे वह हिंसा की दिशा में अग्रसर होता है। विकसित राष्ट्रों में वहाँ के स्कूलों के विद्याथर््ी शस्त्रों से लैस होकर कक्षाओं में जाते हैं। जहाँ ऐसी मानसिकता और ऐसी स्थिति है, वहाँ अहिंसा की बात कैसे स्थापित हो सकती है? जहाँ सामान्य वाद-विवाद में भी गोली और बम का इस्तेमाल होने लग गया हो, वहाँ अहिंसा की बात ही बेमानी हो जाती है। इस स्थिति में सम्यक् आजीविका का सूत्र बहुत आवश्यक है। (क्रमशः)