प्रत्यनीक से बचने का प्रयास करें: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

प्रत्यनीक से बचने का प्रयास करें: आचार्यश्री महाश्रमण

नंदनवन (मुंबई), 21 जुलाई, 2023
तीर्थंकर के प्रतिनिधि, भिक्षु के प्रतिरूप, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भगवती सूत्र के 8वें शतक की विवेचना करते हुए फरमाया कि चार गतियाँ होती हैं-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। पाँचवीं गति सिद्ध गति होती है। संसारी जीव इन चारों गतियों में भ्रमण करते हैं कोई-कोई जीव तो तिर्यंच गति के वनस्पतिकाय के अव्यवहार राशि से ही बाहर नहीं निकले हैं।
यहाँ गति के संदर्भ में प्रत्यनीक तीन प्रकार के होते हैं-इहलोक, परलोक, उभयलोक प्रत्यनीक। मनुष्य जीवन का प्रत्यनीक वह होता है, जो अज्ञानपूर्वक तप करता है, वह इहलोक प्रत्यनीक होता है। पंचाग्नि तप में निर्जरा के साथ हिंसा भी होती है। यहाँ तो मनुष्य जीवन है, पर जो अगले जीवन का बैरी होता है। जैसे जो इंद्रिय-विषय में आसक्त रहता है, वह परलोक प्रत्यनीक होता है। अनेक प्रकार से वह हिंसा करता है। व्यसनों व मांसाहार का सेवन करता है। धर्म-संयम की चेतना नहीं है।
वर्तमान में जो हमें सुख-सुविधाएँ प्राप्त हैं, वह तो पूर्व के पुण्य की कमाई है। आगे की भी चिंता करें। कुछ धर्म कमाई करें। हमें तो मोक्ष चाहिए उसके लिए तपस्या-संयम की साधना करें। उभयलोक प्रत्यनीक इस जीवन और परलोक दोनों का प्रत्यनीक होता है। जैसे चोरी आदि किया, सुख-सुविधा भोगी पर धर्म-ध्यान नहीं किया तो इहलोक और परलोक दोनों का दुश्मन हो जाता है।
भगवती सूत्र के इस प्रसंग से हम प्रेरणा लें कि हम इहलोक, परलोक या उभय-लोक प्रत्यनीक न बने। संयममय जीवन हो, ज्ञानपूर्वक तपस्या करें, सम्यक् दर्शन हो। जीवन में नैतिकता, ईमानदारी हो। व्यक्तिगत जीवन में सादगी रहे। उम्र की तरफ ध्यान देकर जीवन में मोड़ लें। साधु का-सा जीवन जीने का प्रयास करें। संसार से निवृत्ति लेने का प्रयास करें। साधना की ओर आगे बढ़ें।
कालू यशोविलास की सुंदर विवेचना करते हुए परम पावन ने पूज्य कालूगणी को घुटने में हुई तकलीफ के प्रसंग को विस्तार से समझाया। कालूगणी महाबली पुरुष थे। पूज्यप्रवर ने 21 रंगी तपस्या के अंगभूत तपस्वियों को वृहद् मंगलपाठ के साथ प्रत्याख्यान करवाए। पारसमल बोथरा ने 37 की तपस्या के प्रत्याख्यान लिए।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने कहा कि दूसरों के सत्त्व का हरण करना निंदनीय, हेय कार्य माना गया है। यह अदत्तादान पाप है। गृहस्थ स्थूल अदत्तादान से बच सकता है। जैन साधु के लिए तो सूक्ष्म अदत्तादान का भी त्याग होता है। लोक दंड व राज दंड स्थूल अदत्तादान होता है। अनेक कारणों से व्यक्ति चोरी कर लेता है, उसे अच्छा भी मानता है। अदत्तादान से भारी कर्मों का बंध हो सकता है। इहलोक-परलोक बिगड़ते हैं।
25 बोल की पुस्तक जो साध्वी जिनप्रभा जी ने लिखी थी उसका अंग्रेजी संस्करण Key of Jain Fundamental जैन विश्व भारती द्वारा पूज्यप्रवर को अर्पित की गई। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाते हुए प्रेरणा प्रदान करवाई। पूज्यप्रवर से हीनल सिंघवी ने 31 की तपस्या के प्रत्याख्यान लिए। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बारह व्रतों को समझाया।