संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

आचार्य महाप्रज्ञ 
 
बंध-मोक्षवाद
 
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
 
(31) आत्मगुप्तः सदा दान्तः, छिन्नस्रोता अनास्रवः।
स धर्मं शुद्धमाख्याति, प्रतिपूर्णमनीदृशम्।।
 
(पिछला शेष)  (1) आत्मगुप्तµ(आत्म-रक्षित)µआत्मा की असुरक्षा के हेतु हैंµइंद्रियों की ओर मन की चंचलता। इंद्रियाँ विषयों का ग्रहण करती हैं और मन को अपना संवाद पहुँचाती हैं। मन अनुरक्ति और विरक्ति, चाहिए और नहीं चाहिए कि दौड़-धूप में व्यग्र हो उठता है। पूर्वबद्ध संस्कारों के कारण आत्मा की ध्वनि दब जाती है और मन सक्रिय हो उठता है। यह असमाधि है, दुःख है। जिस साधक ने इन्हें ठीक समझकर, जानकर और देखकर समाधिस्थ बना लिया है, शांत बना लिया है, जिसकी इंद्रियाँ जब स्वयं के अधीन हो गई हैं, जो अपना मालिक है, वह आत्म-गुप्त होता है।
(2) दांत-शांतµजो सदा उपशांत रहता है। अशांति का हेतु हैµकषाय। कषाय संसार है और अकषाय मुक्ति। कषाय हो और अशांति न हो यह संभव नहीं है। साधना कषाय की शांति के लिए है। ‘कषायमुक्ति: किल मुक्तिरेव’ कषाय की शांति को मुक्ति कहा है। वक्ता के लिए शांत होना अनिवार्य है। राग-द्वेषयुक्त वक्ता के द्वारा शुद्ध धर्म का निरूपण संभव नहीं है।
(3) छिन्नस्रोताµजिसने कर्म आने के मार्गों को नष्ट कर दिया है। इसका एक अर्थ और भी है। संसारानुगामी लोग-व्यवहार से जो ऊपर उठ जाता है वह छिन्नस्रोता हो जाता है। एक यथार्थद्रष्टा को लोक-व्यवहार से मुक्त होना आवश्यक है। धर्म के सम्यक् प्रतिपादन में लोक व्यवहार भी एक बाधा है। साधक लोकहित के लिए बोलता है, न कि लोकरंजन के लिए। ‘जनरंजनाय’ कहकर आचार्य ने अपना पश्चात्ताप प्रकट किया है। धर्म के प्रतिपादन का उद्देश्य होता हैµलोगों को सही मार्गदर्शन देना। यह तभी संभव है जबकि साधक सत्य के अतिरिक्त किसी को महत्त्व नहीं देता। सत्य सर्वोपरि है। सत्य के मार्ग में आने वाली सभी अड़चनों से जो मुक्त हो चुका है वह हैµछिन्नस्रोता।
(4) अनास्रवµशाब्दिक परिभाषा की दृष्टि से अनास्रव का अर्थ होता हैµपाँच आस्रव-द्वारों से रहित। इसका दूसरा अर्थ मध्यस्थ भी होता है। जो शुभ-अशुभ विचारों में सदा तटस्थ, समत्ववान्, मध्यस्थ रहता है, वह अनास्रव होता है। यहाँ मध्यस्थ अर्थ अधिक संगत लगता है। धर्म का उपदेष्टा यदि स्थिर न हो तो सत्य के निरूपण में बड़ी कठिनाई पैदा होगी। फिर वह कभी बायें झाँकेगा और कभी दाएँ। उसे दूसरों पर निर्भर होना होगा।
तटस्थ व्यक्ति सदा स्थिर रहता है, न वह इधर झाँकता है और न उधर। वह संतुलित रहता है। सत्य का आविर्भाव उसी स्थिति में संभव है।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शब्दों मेंµलोगों को सिखाना कठिन काम है। भगवान् के दर्शन के बाद यदि किसी को उनका आदेश प्राप्त हो तो वह लोक-शिक्षा (उपदेश) दे सकता है।
 
(क्रमशः)