उपासना
(भाग - एक)
जैन जीवनशैली
सम्यक् संस्कार
जैन जीवनशैली का सातवाँ सूत्र है-सम्यक् संस्कार। आदमी संस्कारों के आधार पर जीवन जीता है। जैसा संस्कार वैसा व्यवहार। प्रारंभ से ही अच्छे संस्कार मिलते हैं तो जीवन अच्छा बनता है। एक तोते को अच्छा संस्कार मिला था इसलिए उसने राजा का स्वागत किया। दूसरे तोते को बुरे संस्कार मिले थे इसलिए राजा को देखते ही वह बोल पड़ा-‘आओ, मारो, काटो, लूटो।’ राजा ने पहले तोते से पूछा-‘दोनों के स्वभाव में इतनी भिन्नता का कारण क्या है? उसने बताया-‘हम दोनों सगे भाई हैं। मैं एक ऋषि के आश्रम में पला-बढ़ा, वहाँ के संस्कार सीखे। मेरा भाई चोरों के पास रहा, उसने उन्हीं के संस्कार और भाषा सीखी।’
जीवन की नींव ही संस्कारों पर आधारित होती है। जैन जीवनशैली में कुछ संस्कार निर्धारित किए गए हैं, जैसे-अभिवादन में जय जिनेंद्र का प्रयोग। इस अभिवादन में ‘वीतराग की जय’ की भावना परिलक्षित होती है। घर की साज-सज्जा और वातावरण हमें निरंतर इस बात की प्रेरणा देने वाला होना चाहिए कि हमें वीतरागता की दिशा में प्रस्थित होना है। वीतरागता हमारा लक्ष्य है। कुल मिलकर हमारे संस्कार वीतरागोन्मुखी होने चाहिए। संस्कारों की फिसलन बहुत है, राग की ओर ले जाने वाले घटक बहुत हैं, किंतु वीतरागता की ओर जाने की प्रवृत्ति बने तो हमारी जीवनशैली अधिक प्रभावी बनेगी।
आहारशुद्धि और व्यसनमुक्ति
जैन जीवनशैली का आठवाँ सूत्र है- आहारशुद्धि और व्यसनमुक्ति। आहार अध्यात्म का पुराना विषय भी है और नया विषय भी। पुराना इसलिए कि धर्मशास्त्रों में आहारशुद्धि पर बहुत बल दिया गया है। नया इस अर्थ में कि आज विज्ञान आहार के संबंध में बहुत सारी नई बातें हमारे सामने प्रस्तुत कर रहा है।
हमारे आहार से आचार, विचार और व्यवहार का बहुत निकट का संबंध है, इसलिए आहार पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। ऐसा आहार न हो, जो उत्तेजना बढ़ाए, संस्कारों में विकृति लाए। मांस वर्जन इसीलिए है कि पशु के संस्कार मांस के साथ आदमी में आते हैं। जिसका मांस खाया जाता है, उसके संस्कार उनमें संचित रहते हैं। फिर पशु का मांस खाने वाला पाशविक संस्कारों से कैसे बच सकता है? उसमें पशुता जागृत हो जाने की बहुत संभावना है। हमारे मस्तिष्क में पशु के मस्तिष्क की भी एक परत है। मांस खाते रहने से वह सक्रिय हो जाती है और मांस खाने को प्रेरित करती रहती है। स्वास्थ्य के लिए भी शाकाहार ही सबसे ज्यादा अनुकूल माना गया है। आहार-शुद्धि पर ध्यान देने वाला सबसे पहले इस बात पर ध्यान केंद्रित करेगा कि आहार इतना शुद्ध हो कि उसमें विकृति पैदा करने वाले तत्त्वों का समावेश न हो।
व्यसनमुक्ति और आहार का भी गहरा संबंध है, क्योंकि आहार भी आदमी को व्यसन की ओर ले जाने वाला होता है। आहार शुद्ध होता है तो व्यसनों से मुक्त होना सरल बन जाता है। जुआ खेलना, शराब पीना, चोरी करना-ये सारे व्यसन हैं और इन्हें प्रेरणा मिलती है आहार की अशुद्धि से। पुरानी कथा है-एक मुनि को एक दिन विकृत आहार मिल गया। परिणामस्वरूप उसने एक सेठ के घर से हार चुरा लिया। जंगल में जाने के बाद उसे वमन हुई, सारा भोजन निकल गया। वमन होते ही चेतना लौटी, अपने कृत्य का भान हुआ। उसनेसेठ को हार वापस दे दिया। आहार विकृति के कितने बुरे परिणाम होते हैं, इसका पता हमें तब चलेगा, जब अपने शरीर और मन पर सूक्ष्मता से ध्यान देंगे।
(क्रमशः)