जैन दर्षन में आत्मा ही कर्मों की कर्ता और भोक्ता है: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

जैन दर्षन में आत्मा ही कर्मों की कर्ता और भोक्ता है: आचार्यश्री महाश्रमण

नंदनवन-मुंबई, 24 जुलाई, 2023
चतुर्विध धर्मसंघ के शास्ता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने जिनवाणी की अमृत वर्षा करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में कहा गया है- प्रश्न किया गया कर्म प्रकृतियाँ कितनी प्रज्ञाप्त हैं। गौतम! आठ कर्म प्रकृतियाँ प्रज्ञाप्त हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गौत्र और अंतराय कर्म। जैन दर्शन में एक सिद्धांत कर्मवाद है। अन्य शास्त्रों में भी कर्मवाद की बातें मिलती हैं। कर्म अपने आपमें सूक्ष्म पुद्गल होते हैं। हमारी आत्मा कोई प्रवृत्ति करती है, तो ये सूक्ष्म पुद्गल आत्मा के चिपक जाते हैं और अपने आप कार्य करते हैं। जैसे हम सिर्फ भोजन करते हैं, पर बाकी सारी प्रवृत्तियाँ अपने आप होती हैं। इसी तरह कर्म अगला कार्य करते हैं, कब उदय में आएँगे, कितना समय लगेगा, क्या फल देंगे आदि। जैसे घड़ी अपने आप चलती है। हमने तो पहले सेट कर दिया। यह कर्मवाद का क्रम है।
जैन दर्शन ईश्वरीय शक्ति को नहीं मानता कि ईश्वर फल देगा। जैन दर्शन में कर्म अनुसार ही सब होता है। आत्मा ही कर्मों की कर्ता भोक्ता है और कार्य से मुक्त हो सकती है। कर्म इन अष्ठकर्मों में चार घाति कर्म ज्ञानावरणी, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय ये आत्म गुणों का घात करने वाले हैं। शेष चार कर्म अघाती कर्म हैं। ये भौतिक फल देने वाले हैं। घाति कर्म आत्मा का नुकसान करने वाले हैं। अघाती कर्म बाह्य चीजें हैं। ये चारों कर्म शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के हो सकते हैं। ये बाह्य फल देते हैं।
चार घाती कर्म का आत्मा के साथ गहरा रिश्ता है। ज्ञानावरणीय ज्ञान को दर्शनावरणीय कर्म दर्शन को अंतराय कर्म शक्ति को और मोहनीय कर्म पाप लगाने वाले होते हैं। इन सबमें मोहनीय कर्म कर्मों का राजा है। आत्मा के पाप लगाने वाले हैं। शेष तीन कर्म पाप नहीं लगाते हैं, सिर्फ अपना फल देते हैं। इन आठ कर्मों से हमारा व्यक्तित्व इनके उदय और विलय से जुड़ा हुआ है।
विलय में उपशम, क्षय और क्षयोपशम होता है। अशम सिर्फ मोहनीय का, क्षय आठों कर्म का और क्षयोपशम ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय चारों का होता है। शुभ रूप में बंधने से पुण्य रूप में और अशुभ रूप में बंधने पाप रूप में फल मिलेगा। अघाती कर्म के उदय से दुःख और क्षय से आत्मिक सुख मिलता है। कालू यशोविलास का विवेचन करते हुए परम पूज्य ने फरमाया कि पूज्य कालूगणी के गोड़े में तकलीफ के साथ हाथ में भी व्रण हो गया है। उदयपुर प्रवास का आषाढ़ सूदि तीज का दिन तय करवाते हैं और उदयपुर ठाट-बाट से पधार जाते हैं, उस प्रसंग की सुंदर व्याख्या की। उदयपुर के महाराणा को भी गुरुदेव के दर्शन का निवेदन किया जाता है। कृष्णा सेमलानी, रेणु गुलियाव मीरा देवी ओस्तवाल, ललितादेवी मेहता, शांता देवी बाफना, सुनीता बोथरा व संतोष धोका ने तपस्या के पूज्यप्रवर से प्रत्याख्यान ग्रहण किए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।