तीन रत्न हैं- ज्ञान, दर्शन एवं चारित्रा : आचार्यश्री महाश्रमण
युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आगमवाणी की अमृत वर्षा का रसास्वादन कराते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया कि भन्ते! आराधना कितने प्रकार की होती है। उत्तर में कहा गया है- गौतम! आराधना के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं- ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना, चरित्राराधना। यह तीन महत्वपूर्ण तत्व है- ज्ञान, दर्शन और चारित्र। यह तीन रत्न है। धरती पर तीन रत्न बताये गये हैं- जल, अन्न और सुभाषितम्। आर्ष वाणी अपने आप में रत्न है। इनमें ज्ञान है, समस्याओं के समाधान का पथदर्शन मिल सकता है। अच्छी भाषा भी अपने आप में एक रत्न हो सकती है। आदमी के पास बोलने की अच्छी शक्ति है, वह भी रत्न है। रत्न है, उनका अपव्यय न हो। जो गूढ़ लोग है, वे पत्थर के टुकड़ों को रत्न कहते हैं। अपनी जाति में जो उत्कृष्ट होता है, वह रत्न होता है। ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना और चारित्राराधना तो ऐसे रत्न हैं कि पाषाण रत्न इनके सामने कुछ नहीं है। स्वाध्याय के द्वारा श्रुत की आराधना की जा सकती है।
ज्ञानशाला के माध्यम से भी छोटे बच्चों को ज्ञान दिया जाता है। ज्ञान का कोई पारावार नहीं है। कितने विषय और भाषाओं के ग्रन्थ भरे पड़े हैं, पर हमारे पास समय सीमित है। आगे तो आयुष्य और छोटा होने वाला है। सांसारिक अनेक कार्यों से ज्ञान प्राप्ति में अवरोध आ सकता है। जो सारभूत ज्ञान है, उसे ग्रहण करने का प्रयास करें। हम जीवन में ज्ञानराधाना का प्रयास करें। सम्यकत्व हमारा पुष्ट रहे। सच्चाई के प्रति श्रद्धा का भाव रहे। जो जिनेश्वर भगवान ने प्रवेदित किया है- वह सत्य है, सत्य ही है। सच्चाई के प्रति हमारी आस्था रहे। देव, गुरु और धर्म के प्रति हमारी अटूट श्रद्धा रहे। सम्यक दर्शन अच्छा रहे।
चारित्राराधना भी हमारी अच्छी रहे। साधु तो सर्व चारित्र युक्त होते हैं, पर गृहस्थ में देशचारित्र हो सकता है। सामायिक की आराधना भी देश चारित्र की साधना है। शनिवार की सामायिक 7 से 8 बजे सायं अवश्य करनी चाहिये। चाहे देश हो या विदेश धर्माराधना तो करनी चाहिये। यह तो एक पूंजी है जो आगे तक काम आने वाली है। एक उम्र के बाद आगे का भी हमें चिन्तन रखना चाहिये।
इन तीन आराधनाओं के द्वारा हम मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। धर्म से बड़ी कोई चीज नहीं है। अध्यात्म का विकास होते रहना चाहिये। इनके प्रति जागरूक रहना चाहिये। पूज्यवर ने एनआईआर समिट के संभागियों को सम्यक् दीक्षा ग्रहण करवायी।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने फरमाया कि दुनिया में भोग आशाश्वत है, हम इनके पीछे न दौड़ें। व्यक्ति अच्छे मार्ग पर जाना चाहता है, पर जा नहीं सकता, उसका कारण है- मोह। जन्म-मरण की परम्परा का मुख्य स्रोत मोहनीय कर्म है। व्यक्ति के आचार-विचार को दूषित करने वाला मोहनीय कर्म ही है। नकारात्मकता के भाव मोह कर्म से ही आते हैं। जो साधक धार्मिक प्रवृत्ति का होता है, वह अपने मोह को वश में करते हुए आगे बढ़ता है। बलदेव भी अपने भाई वासुदेव के प्रति मोह से आक्रांत होता है। मोहग्रस्त व्यक्ति यथार्थता को स्वीकार नहीं करता है। हम मोह से बचें। मोह कर्म का विलय होने पर हम आन्तरिक आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं।
साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने फरमाया कि इस लोक में सभी आत्माएं समान हैं, पर व्यवहार जगत में भिन्नताएं, असमानताएं और भेद है। भिन्नता से ही योग्यता की तारतम्यता होती है, पर हमें अहंकार नहीं करना चाहिये। संसारी अवस्था में सबसे ज्यादा अहंकार मनुष्य में होता है। अहंकार से चित्त अशान्त बन जाता है। अहंकार युक्त व्यक्ति पानी में तेल की तरह तैरता है। उसे सुगति प्राप्त नहीं हो सकती।
लंदन के अप्रवासी श्रद्वालुओं द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक पूज्यवर के सान्निध्य में लोकार्पित की गई। पूज्यवर, साध्वी- प्रमुखाश्री ने आशीर्वचन फरमाया। हंसु भाई एवं राजेश भाई ने लंदन में जैन धर्म की प्रभावना के विषय में बताया। जितेन्द्र ढ़ेलड़िया ने पुस्तक के बारे में जानकारी दी।
आचार्यश्री महाश्रमण दीक्षा के 50वें दीक्षा कल्याण वर्ष के अवसर पर नंदनवन में नवनिर्मित ‘महाश्रमण कीर्तिगाथा’ म्युजियम के संदर्भ में महासभा के अध्यक्ष मनसुखलाल सेठिया ने अवगति प्रस्तुत की।
पूज्यवर से लता भरसारिया ने 31 की तपस्या एवं सुरेन्द्र सोनी, मनीषा बरड़िया, जगदीश मादरेचा, चन्द्रा चोरड़िया व प्रियंका सिंघवी को उनकी तपस्या के प्रत्याख्यान करवाये। पूज्यवर ने मुंबई स्तरीय मंगलभावना समारोह पनवेल में करना स्वीकार किया।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।