धार्मिक जीवों का बलिष्ठ और पापी जीवों का दुर्बल होना अच्छा: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

धार्मिक जीवों का बलिष्ठ और पापी जीवों का दुर्बल होना अच्छा: आचार्यश्री महाश्रमण

18 अगस्त 2023 नन्दनवन-मुम्बई
परमपावन पूज्यवर आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवती सूत्र की व्याख्या करते हुए फरमाया कि श्रमणोपासिका जयंती एक महत्वपूर्ण श्राविका थी। वह भगवान महावीर की सन्निधि में उपस्थित थी। उस समय कौशाम्बिक नाम की नगरी हुआ करती थी। उस नगरी के बाहर चन्दरावतण नाम का चैत्य था। उस नगरी में श्रमणोपासिका जयंती का भतीजा राजा उदयन वहां था। 
जयंती श्रमणोपासिका, शय्यात्तर का लाभ लेने वाली व तत्त्वांे को जानने वाली और तपःकर्म करते हुए आत्मा को भावित करने वाली थी। एक बार भगवान महावीर उस नगरी में पधारे तो जयंती, मृगावती राजा उदयन आदि राज परिवार के साथ उनके दर्शन करने गये। भगवान की देशना सुनने के पश्चात राजा उदयन और उसकी माता मृगावती अपने घर लौट गये।
जयंती भगवान की पर्युपासना में बैठी थी। जयंति ने प्रश्न किया कि भन्ते! जीवों का बलिष्ठ होना अच्छा है या दुर्बल होना अच्छा है। प्रभु महावीर ने फरमाया- जयंती! कुछ जीवों का बलिष्ठ होना अच्छा है, कुछ जीवों का दुर्बल होना अच्छा है। उत्तर देने वाला सही-सटीक उत्तर दे सके तो प्रश्नकर्ता को संतोष हो सकता है। उत्तरदाता के उत्तर देते समय कई विकल्प हो सकते हैं कि किस प्रश्न का उत्तर देना या नहीं देना। जैसा अवसर लगे कर सकता है। पर केवलज्ञानी तो सर्वज्ञ होते हैं। उन्हें किसी ग्रन्थ या प्रमाण की अपेक्षा नहीं रहती। 
भगवान महावीर ने उतर देते हुए कहा कि जो धार्मिक लोग हैं, उनका बलवान होना अच्छा है। वे बलवान रहेंगे तो अच्छा कार्य करते हुए स्व-पर का कल्याण कर सकेंगे। जो पापी-अधर्मी उनका दुर्बल होना ही ठीक है, ताकि वे पाप से मजबूरी में बचे रह सकंे। वीर्य आत्मा बतायी गयी है, शरीर से संबंधित है। सिद्धों में वीर्य आत्मा नहीं होती।  गुरुदेव तुलसी का शारीरिक बल श्रेष्ठ था। कितनी लम्बी यात्राएं कर ली। पूज्य कालूगणी का अभी प्रसंग चल रहा है, उनमें भी कितना आत्मिक संकल्प बल था। पूज्यवर ने कालूयशोविलास की व्याख्या कराते हुए पूज्य कालूगणी केे अनेक उपचारों के पश्चात भी रोग ठीक नहीं होने के प्रसंग को फरमाया। 
पूज्यवर ने साध्वी मार्दवयशाजी को 9 की तपस्या का एवं टीना बैंगानी को 49 की तपस्या व लकी बोराणा को 17 की तपस्या के  प्रत्याख्यान करवाये। 
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने फरमाया कि बौद्धिक विकास के साथ आध्यात्मिक चेतना का विकास भी जरूरी है। मोह कर्म के विलय से आध्यात्मिक चेतना का विकास होता है। मोह का मूल है- राग और द्वेष। जिससे जीव प्रियता का संवेदन करता है, वह राग है और जहां अप्रियता का संवेदन है, वह द्वेष भाव है।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।