संबोधि
संबोधि
बंध-मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(36) अशङ्कितानि शङ्कन्ते शङ्कित्तेषु हृशङ्कित्ताः।
असंवृत्ता विमुह्यन्ति, मूढा यान्ति चलं मनः।।
असंवृत्त व्यक्ति मुग्ध होते हैं। जो मूढ है, उनका मन चंचल होता है। वे उन विषयों में शंका करते हैं जो शंका के स्थान नहीं हैं और उन विषयों में शंका नहीं करते, जो शंका के स्थान हैं।
जिनकी इंद्रियों और मन का द्वार बाहर की तरफ खुला है, वे असंवृत्त होते हैं। असंवृत्त व्यक्ति अमृत, अनश्वर में सदा सशंकित रहता है। उसका जो कुछ परिचय है, वह मृत-नश्वर से है। कुछ समझते हैं, लेकिन जानते हुए भी सशंक में अशंक की भाँति हाथ डालते हैं। बुद्ध ने कहाµ‘नित्य प्रज्वलित इस संसार में कैसा हास्य और आनंद? अंधकार से घिरे हुए लोगो! प्रदीप की खोज क्यों नहीं कर रहे हो?’ यह बुद्ध पुरुषों का दर्शन है। उन्हें आग दिखाई दे रही है। लोग जल रहे हैं। किंतु मनुष्य को यदि आग दिखाई दे तो वह अपने को बचा सकता है। उसे दिखाई दे रही है ठंड। यह उल्टा दर्शन है। इसलिए महावीर ठीक कहते हैंµ‘वे लोग मूढ़ हैं जो मृत में मुग्ध हो रहे हैं। अशंकित में पैर रखते हुए शंका करते हैं और शंकित स्थानों में अशंकित होकर विहरण करते हैं। अमृत की उपलब्धि के बिना उनकी पीड़ा शांत नहीं हो सकती। अमृत को खोजो, शाश्वत को खोजो, अनश्वर को प्राप्त करो।’
(37) स्वकृतं विद्यते दुःखं, स्वकृतं विद्यते सुखम्।
अबोधिनाऽर्जितं दुःखं, बोधिना हि प्रलीयते।।
दुःख अपना किया हुआ होता है और सुख भी अपना किया हुआ होता है। अबोधि से दुःख अर्जित होता है और बोधि से उसका विलय होता है।
भगवान् महावीर ने कहाµ
‘अन्नाणी किं काहिइ, किं वा नाहीइ छेयपावगं।’
अज्ञानी को श्रेय ओर अश्रेय का पता नहीं होता। वह बेचारा है, दया का पात्र है, वह क्या करेगा? कैसे पार करेगा भवसागर को? यह करुण का परम वचन है। बुद्ध ने कहा हैµ‘भिक्षुओ! सब मलों में अज्ञान परम मल है। इस मल को धो डालो और पवित्र हो जाओ।’ गीता में कहा हैµ‘अज्ञानेनावृत्तं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति जन्तवः’µप्राणियों का ज्ञान अज्ञान से आच्छन्न है, इसलिए वे मूढ़ होते हैं।
अज्ञान पर सब संतों ने प्रहार किया है। सारा दुःख अज्ञान से अर्जित है। मनुष्य को पता नहीं है कि कैसे वह दुःख का संग्रह कर रहा है। दुःख सबको अप्रिय है। कोई नहीं चाहता है कि दुःख मिले किंतु आश्चर्य है कि जाने, अनजाने सब दुःख-नरक में उतर रहे हैं। दुःख ने मनुष्य को नहीं पकड़ा है, किंतु मनुष्य ने ही उसे पकड़ रखा है। जिस दिन यह समझ में आ जाएगा, आदमी उसे छोड़ भी सकेगा। दुःखी व्यक्ति ही दूसरों को सताने का प्रयत्न करता है। महावीर, बुद्ध आदि संतों ने किसी को नहीं सताया। क्योंकि वे परम सुख में थे। जब तक आप दुःखी हैं, दूसरों को कष्ट देने से नहीं चूकेंगे। आध्यात्मिक होने की शर्त हैµआप सुखी बन जाएँ, दूसरों की चिंता छोड़ दीजिए। सुख उतर जाएगा। सुख के लिए सुख का ज्ञान अपेक्षित है। जैसे ही ज्ञान की किरण उतरेगी अनंत जन्मों का संगृहीत दुःख एक क्षण में विदा हो जाएगा। मैं दुःख किसी से लूँगा ही नहीं तो कौन मुझे दुःख देगा? मैं हर क्षण में प्रफुल्लित मुस्कराता रहूँगा। जो कुछ भी मेरे लिए है, वह सब मंगल रूप है।’ ऐसे व्यक्ति को कौन दुःखी कर सकता है? (क्रमशः)