मनोनुशासनम्
(क्रमशः)
तृतीय भूमिका
(1) प्रेक्षाध्यान
(क) श्वास-प्रेक्षा-प्रेक्षाध्यान सूक्ष्म श्वास के साथ-कायोत्सर्ग मुद्रा में, सुखासन या पद्मासन में स्थित हो सूक्ष्म श्वास के साथ श्वास-प्रेक्षा का अभ्यास करें।
समय-दस मिनट से एक घंटा तक।
(ख) सहज प्रकम्पन-प्रेक्षा-सिर से लेकर पैर तक प्रत्येक अवयव में होने वाले सहज प्रकम्पनों का निरीक्षण करें।
समय-पाँच मिनट से एक घंटा तक।
(ग) सामायिक-ज्ञाता और द्रष्टा के रूप में इंद्रिय-विषयों की संप्रेक्षा।
समय-पाँच मिनट से एक घंटा तक।
(2) प्रेक्षाध्यान: अभिमेष प्रेक्षा
समय-पाँच मिनट से नौ मिनट तक।
(3) भावना-योग
(क) अशरण-अनुप्रेक्षा
समय-पाँच मिनट से आधा घंटा तक।
(ख) अर्हम् भावना
समय-पाँच मिनट से आधा घंटा तक।
(ग) ‘ऐं’ भावना
समय-पाँच मिनट से आधा घंटा तक।
(4) श्वास-संयम: केवल कुम्भक
पूरक-रेचक किए बिना श्वास भीतर हो तो भीतर, बाहर हो तो बाहर, जहाँ कहीं हो उसे वहाँ रोककर कुम्भक किया जाए। दस या पंद्रह आवृत्तियाँ की जाए।
(5) संकल्प-योग
प्रातःकालीन जागरण के साथ पाँच मिनट तक भावना का अभ्यास करें। जिन गुणों का विकास चाहें, उन गुणों की तन्मयता का अनुभव करें-उन गुणों से चित्त को भावित करें।
(6) प्रतिक्रमण-योग
रात्रि-शयन से पूर्व पाँच मिनट तक अपनी अतीत की प्रवृत्तियों का सजगतापूर्वक निरीक्षण करें-समय की अपेक्षा से प्रतिलोभ निरीक्षण करें।
(7) भाव-क्रिया
अपनी दैनिक प्रवृत्तियों में भाव-क्रिया का अभ्यास करें-वर्तमान क्रिया में तन्मय रहने का अभ्यास करें। जैसे-चलते समय केवल चलने का ही अनुभव हो, खाते समय केवल खाने का ही, इत्यादि। जो क्रिया करें, उसकी स्मृति बनी रहे।
चतुर्थ भूमिका
(1) प्रेक्षाध्यान
(क) श्वास-प्रेक्षा: प्रेक्षाध्यान सूक्ष्म श्वास के साथ
समय-दस मिनट से एक घंटा तक।
(ख) संयम-मन, वचन, काया की जो माँग सामने आए, उसे अस्वीकार करना, विकल्प का उत्तर न देना-प्रतिक्रिया न होने देना। केवल इंद्रियों से काम लेना, उनके साथ मन को न जोड़ना। ईहा न करना। प्रियता और अप्रियता के मध्य बिंदु की खोज करना, मध्य में रहना-मध्यस्थ भाव का विकास करना।
(ग) सामायिक-ज्ञाता और द्रष्टा के रूप में विचार-संप्रेक्षा।
(2) प्रेक्षाध्यान: अनिमेष-प्रेक्षा
समय-पाँच मिनट से नौ मिनट तक।
(3) भावना-योग
(क) मैत्री-अनुप्रेक्षा
समय-पाँच मिनट से एक घंटा तक।
(ख) अर्हम् भावना
समय-पाँच मिनट से आधा घंटा तक।
(ग) ‘ऐं’ भावना
समय-पाँच मिनट से आधा घंटा तक।
(4) श्वास-संयम: केवल कुम्भक
पूरक-रेचक किए बिना श्वास भीतर हो तो भीतर, बाहर हो तो बाहर, जहाँ कहीं हो उसे रोककर कुम्भक किया जाए। दस या पंद्रह आवृत्तियाँ की जाएँ।
(5) संकल्प-योग
प्रातःकालीन जागरण के साथ पाँच मिनट तक भावना का अभ्यास करें। जिन गुणों का विकास चाहें, उन गुणों की तन्मयता का अनुभव करें-उन गुणों से चित्त को भावित करें।
(6) प्रतिक्रमण-योग
रात्रि-शयन से पूर्व पाँच मिनट तक अपनी अतीत की प्रवृत्तियों का सजगतापूर्वक निरीक्षण करें-समय की अपेक्षा से प्रतिलोम निरीक्षण करें।
(7) भाव-क्रिया
अपनी दैनिक प्रवृत्तियों में भाव-क्रिया का अभ्यास करें-वर्तमान क्रिया में तन्मय रहने का अभ्यास करें। जैसे-चलते समय केवल चलने का ही अनुभव हो, खाते समय केवल खाने का ही, इत्यादि। जो क्रिया करें, उसकी स्मृति बनी रहे।
पाँचवीं भूमिका
(1) प्रेक्षाध्यान
(क) श्वास-प्रेक्षा-पूर्ववत्।
(ख) धर्म-प्रेक्षा-(धर्म ध्यान)
भूत, वर्तमान और भविष्य के धर्मों अथवा पर्यायों को देखना-विपाक-प्रेक्षा, अपायप्रेक्षा, संस्थान-प्रेक्षा।
(ग) सामायिक-ज्ञाता और द्रष्टा के रूप में वेदना-संप्रेक्षा।
(2) प्रेक्षाध्यान: अनिमेष प्रेक्षा
पूर्ववत्।
(ख) अर्हम् भावना
समय-पाँच मिनट से आधा घंटा तक।
(ग) ¬ ह्रीं श्रीं अर्हम् नमः भावना
समय-पाँच मिनट से आधा घंटा तक।
(4) श्वास-संयम
एक मिनट में एक श्वास या दो मिनट में एक श्वास का प्रयोग।
(5) संकल्प-योग
पूर्ववत्।
(6) प्रतिक्रमण-योग
पूर्ववत्।
(7) भाव-क्रिया
पूर्ववत्।
पाँच भूमिकाओं की कालावधि इस प्रकार है-
प्रथम भूमिका - एक मास
द्वितीय भूमिका - दो मास
तृतीय भूमिका - तीन मास
चतुर्थ भूमिका - चार मास
पंचम भूमिका - पाँच मास
(2) प्रेक्षाध्यान के आधारभूत तत्त्व
जैन साधकों की ध्यान-पद्धति क्या है-यह प्रश्न किसी दूसरे ने नहीं पूछा, स्वयं हमने ही अपने आपसे पूछा। पंद्रह वर्ष पूर्व (वि0सं0 2017), यह प्रश्न मन में उठा और उत्तर की खोज शुरू हो गई। उत्तर दो दिशाओं से पाना था-एक आचार्य से, दूसरा आगम से। आचार्यश्री ने पथ-दर्शन दिया और मुझे प्रेरित किया कि आगम से इनका विशद उत्तर प्राप्त किया जाए।
(क्रमशः)