ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से बढ़ती है बुद्धि: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से बढ़ती है बुद्धि: आचार्यश्री महाश्रमण

21 अगस्त 2023, नंदनवन मुम्बई
जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने जिनवाणी की अमृत वर्षा कराते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में बताया गया है कि जीव और पुद्गल का एक संबंध होता है। जो शरीर दिखाई दे रहा है, वह पुद्गल है। जीव अमूर्त है। इस पोद्गलिक शरीर से भी ज्यादा निकट संबंध इस जीव का तेजस शरीर के साथ है और उससे भी ज्यादा निकट का संबंध कार्मण शरीर के साथ होता है।
सामान्यतया हर मनुष्य के पास तीन शरीर होते हैं। औदारिक, तेजस और कार्मण शरीर। इसके सिवाय दो शरीर वैक्रिय और आहारक भी होते हैं। वैक्रिय शरीर देवों और नेरयिकों में तो होता ही है, उनमें औदारिक शरीर नहीं होता। वैक्रिय शरीर से विक्रिया होता है। कोई-कोई मनुष्य तिर्यन्च वैक्रिय शरीर का प्रयोग कर सकता है। संसारी जीवों में तेजस और कार्मण, ये दो प्रकार तो रहते ही हैं, वायुकाय भी कभी-कभी वैक्रिय शरीर धारण कर सकता है। आहारक शरीर दुर्लभ सा है। जो केवल चौदह पूर्वधारी साधु में ही हो सकता है। कार्मण शरीर सब कुछ कराने वाला होता है।
गौतम स्वामी ने प्रश्न पूछा कि भंते! औत्पतिकी, वैनैयिकी, कार्मिकी और परिणामिकी- ये कितने वर्ण यावत् कितने स्पर्श वाली प्रज्ञप्त है। उत्तर दिया गया कि ये अवर्ण है, अगंध है, अरस है, अस्पर्श है। कर्म शरीर मूर्त है। माया-लोभ को पैदा करने वाला कार्मण शरीर है, इसलिए उसमंे वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं। जो चीज क्रम के अभाव से मिलती है, उसमें यह चारों नहीं होते हैं। बुद्धि कर्म के क्षयोपशम से मिलने वाली चीज है। ज्ञानावरणीय कर्म का सघन उदय होता है तो आदमी के पास ज्ञान की मन्दता हो जाती है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से बुद्धि बढ़ती है। अनेक रुपों में इसका क्षयोपशम हो सकता है।
जिनके पास अच्छी बुद्धि है, उसका उपयोग अच्छे कार्यों में करना चाहिये। बुद्धि के अनेक स्तर हो सकते हैं। बुद्धि आत्मा की चेतना से होने वाली स्थिति है, इसलिए यह अवर्ण-अस्पर्श वाली है। पूज्यवर ने कालूयशोविलास का सरस शैली में विवेचन कराते हुए पूज्य कालूगणी द्वारा भविष्य की व्यवस्था कराने के प्रसंग को आगे बढ़ाया।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने फरमाया कि जहां व्यक्ति अकेला रहता है, वहां कोई कलह की संभावना नहीं रहती। जहां सामुदायिक जीवन होता है, व्यक्ति परिवार, समाज में रहता है, वहां कलह की स्थिति बन सकती है। गृहस्थों में कलह का मूल कारण जर, जोरू और जमीन बन सकती है। हम सभी कलह से बचने का प्रयास करें।
कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।