उपासना

स्वाध्याय

उपासना

भाग - एक)
जैन जीवनशैली
प्रेक्षाध्यान
भगवान् महावीर की साधना के दो प्रमुख अंग थेµतपस्या और ध्यान। उन्होंने तपस्या और ध्यान इन दोनों ही क्षेत्रों में नए-नए प्रयोग किए। उनके ध्यान संबंधी प्रयोग किसी एक ही स्थान पर संकलित नहीं हैं। आगम साहित्य में बिखरे हुए ध्यान-सूत्रों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वे ध्यान के महान् प्रयोक्ता थे। उनके उत्तरवर्ती आचार्यों में भी कई आचार्य ध्यान के विशिष्ट साधक थे। एक समय ऐसा आया जब ध्यान की परंपरा शिथिल होने लगी। इस कारण आम लोगों की धारणा यह बन गई कि जैनों की कोई ध्यान पद्धति नहीं है। जैन विद्वानों में भी इस धारणा ने प्रवेश पा लिया।
पूज्य गुरुदेव तुलसी का यह चिंतन था कि जैनों की ध्यान साधना काफी विस्तृत और व्यवस्थित है। पर वह विस्मृत हो गई है। उसे नए संदर्भों में आविष्कृत करने की अपेखा है। अपने इस चिंतन को उन्होंने आचार्य महाप्रज्ञ (तत्कालीन मुनिश्री नथमलजी) के सामने प्रकट किया। इसके साथ ही उन्होंने वर्तमान में प्रचलित ध्यान पद्धतियों और जैन आगमों के विकीर्ण विधियों का तुलनात्मक अध्ययन कर ध्यान की एक परिष्कृत और वैज्ञानिक विधि प्रस्तुत करने का निर्देश दिया।
वर्षों तक जैन आगमों का अनुशीलन, अनुसंधान, ध्यान-परंपराओं का अध्ययन, गुरुदेव तुलसी की प्रेरणा, समय की माँग और आचार्य महाप्रज्ञ का पुरुषार्थµकुल मिलाकर नए परिवेश के साथ ध्यान की पद्धति सामने आ गई। उसका नाम रखा गया प्रेक्षाध्यान। प्रेक्षा का अर्थ हैµविशेष रूप से देखना। किसको देखना? अपने-आपको। प्रेक्षाध्यान के मूल रूप को अभिव्यक्ति देने वाला सूत्र हैµसंपिक्खए अप्पगमप्एणंµआत्मा से आत्मा को देखो।
प्रेक्षाध्यान के साधक की ध्येय प्रतिमा हैµचित्त की निर्मलता। चित्त कषायों से मलिन रहता है। मलिन चित्त में न ज्ञान की धारा बह सकती है और न आनंद के प्रकंपन सक्रिय हो सकते हैं। निर्मलता व्यक्ति का आंतरिक रूपांतरण है। वह दिखाई नहीं देता। उसके प्रासंगिक परिणाम हैं। आदतों का बदलाव और तनाव से छुटकारा। किसी को गुस्सा अधिक आता हो, नशा करने की आदत हो, शरीर और मन तनाव से भरे रहते हों, वे प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करके इन संकटों से मुक्त हो सकते हैं।
प्रेक्षाध्यान के अनेक अंग हैं। उनमें योगासन, कायोत्सर्ग, अंतर्यात्रा, श्वास-प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा, चैतन्यकेंद्र प्रेक्षा, लेश्या-ध्यान, अनुप्रेक्षा आदि मुख्य हैं। प्रेक्षाध्यान की यात्रा का प्रथम चरण हैµशरीर को साधना और अंतिम चरण हैµआत्म-साक्षात्कार। इस यात्रा-पथ पर अग्रसर होने के लिए पहला पड़ाव है प्रेक्षाध्यान शिविर का अभ्यास। एक बार अभ्यास हो जाने के बाद दीर्घकाल तक निरंतर अभ्यास करना आवश्यक है।
प्रेक्षाध्यान में जैन साधना-पद्धति के तत्त्वों का समावेश होने पर भी यह एक असांप्रदायिक साधना-पद्धति है। प्रेक्षाध्यान का प्रयोग करने वालों के लिए न जैन होना जरूरी है, न तेरापंथी होना जरूरी है और न आचार्यश्री का शिष्यत्व स्वीकारना जरूरी है। इसके लिए आवश्यक है एकमात्र मानवीय दृष्टिकोण, आग्रहमुक्त चिंतन।
(क्रमशः)