राग-द्वेष के विकारों को दूर रखकर बोलने का करें प्रयास: आचार्यश्री महाश्रमण
06 सितम्बर, 2023 नन्दनवन-मुम्बई
शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आगमवाणी की अमृत वर्षा कराते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में छद्मस्थ केवली से संदर्भित अनेक प्रश्न पुछे गये हैं। प्रश्न किया गया- भन्ते! केवली छद्मस्थ को जानता है और देखता है क्या? उत्तर दिया गया- केवली सर्वत्र होता है, वह सब कुछ जानता-देखता है।
दूसरा प्रश्न किया गया कि भन्ते! क्या सिद्ध भी छद्मस्थ को जानता-देखता है क्या? उत्तर दिया गया कि सिद्ध भी छद्मस्थ को जानता-देखता है। किसी को जानना ज्ञान और देखना दर्शन हो जाता है। सामान्य बोध अनाकार दर्शन है। विशेष बोध साकार उपयोग है, वह ज्ञान है, जानना है। केवली एक समय पर देखता है और एक समय पर जानता है। इस संदर्भ में ज्ञान भी निरंतर नहीं है, दर्शन भी निरंतर नहीं है। इस तरह ज्ञानदर्शन का क्रम चलता है।
आगे प्रश्न किया गया कि क्या केवलज्ञानी परमावधियों को भी जानता- देखता है? उत्तर दिया गया कि केवली परमावधि ज्ञानी, केवलज्ञानी व सिद्ध को भी जानता-देखता है। प्रश्न किया गया कि केवलीज्ञानी बोलते हैं क्या? उत्तर दिया गया- हां, वे बोलते हैं, व्याकरण करते हैं। पुनः प्रतिप्रश्न किया गया कि क्या सिद्ध भी बोलते हैं, व्याकरण करते हैं? उत्तर दिया गया- नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है। केवली मनुष्य में उत्थान, वीर्य, कर्म, पराक्रम, बल होता है, इसलिए वे बोलते हैं, व्याकरण करते हैं। सिद्धों में यह सब नहीं होते, इसलिए वे नहीं बोलते।
सिद्ध हमारे लिए प्रणम्य हैं, पर अर्हत हमारे लिए उपयोगी होते हैं। वे प्रवचन करते हैं। मांग करने वाला मांग कर सकता है, पर देने वाला दे या न दे या जितनी इच्छा हो, उतना दे सकता है। सिद्धों के गुण हमारे में आ जायंे तो हमें आरोग्य-बोधि, समाधि की प्राप्ति हो सकती है। सिद्धों की भक्ति करना भी विशेष बात है, वह हमारी कर्म निर्जरा का साधन बन सकती है।
बोलने की शक्ति भी एक लब्धि है। अनेक जीवों के पास यह लब्धि नहीं होती है। केवली की वाणी में राग-द्वेष के भाव नहीं होते। छद्मस्थ के राग-द्वेष हो सकता है। मनुष्य को भी केवली से प्रेरणा लेकर राग-द्वेष के विकारों को दूर रखकर बोलने का प्रयास करना चाहिये। राग-द्वेष से मुक्त होकर बोलने से वीतरागता भी पुष्ट हो सकती है। हम भी वीतरागता युक्त भाव से बोलने का प्रयास करें।
कालूयशोविलास का विस्तार से विवेचन करते हुए आचार्यवर ने पूज्य कालूगणी के अंतिम समय के प्रकरण का विस्तार से वर्णन किया। पूज्यवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाये।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने फरमाया कि अठारह पापों में एक पाप है- ‘माया मृषा शल्य’। यह एक महापाप है, संताप पैदा करने वाला है। माया आग है और मृषा रूपी घी का सिंचन हो जाता है तो पाप गाढे़ हो जाते हैं। यह पाप गुणों का नाश करने वाला होता है। हम इस माया मृषा पाप को छोड़ने का प्रयास करें।
तेरापंथ कन्या मंडल द्वारा शिक्षक दिवस के उपलक्ष में प्रस्तुति दी गई एवं गीत से पूज्यवर का वर्धापन किया गया। नन्हे से बालक प्रबल कोटड़िया ने गीत की प्रस्तुति दी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमारजी ने किया।