संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
यथार्थ वाक् के रूप जो में सत्य है, हमारा परिचय अधिकांश इसी से है। सत्यवादी हरिशचन्द्र की ख्याति का कारण भी यही है। युधिष्ठिर का रथ जो अधर में रहता था, उसका हेतु भी सत्य-वचन था। समग्र में इसकी आराधना भी उसी पूर्ण सत्य की प्राप्ति का निमित्त बनती है। तीर्थंकरों, आप्तपुरूषों, प्रामाणिक व्यक्तियों का ‘यथावादी’ एक विशिष्ट गुण होता है। महात्मा गांधी ने कहा- हंसी मजाक में भी असत्य-अयथार्थ भाषण नहीं करना चाहिए। निःसंदेह सत्य की साधना ‘असिधारा’ व्रत है। सत्य बोध में साधक को इन समस्त तथ्यों पर चिंतन करना चाहिए।
43- सिंहं यथा क्षुद्रमृगाश्चरन्तः, चरन्ति दूरं परिश्ड्कमानाः।।
समीक्ष्य धर्मं मतिमान् मनुष्यों, दूरेन पापं परिर्वयेच्च।।
जैसे चरते हुए छोटे पशु सिंह से डर कर दूर रहते हैं, इसी प्रकार मतिमान् पुरुष धर्म को समझकर दूर से ही पाप का वर्जन करे।
पाप का अर्थ है- अशुभ प्रवृत्ति। जिस प्रवृत्ति से आत्मा का हनन होता है, वह पाप है। पाप त्याज्य है। उसके स्वरूप को पहचानकर जो व्यक्ति उससे दूर हटता है, वह धर्म के निकट चला जाता है। जो व्यक्ति आत्म-धर्म समझकर पाप से बचते हैं, वे बहुत शीघ्र धर्म के क्षेत्र में प्रवेश पा जाते हैं और जो लज्जावश या भयवश पाप से बचते हैं, वे समय आने पर स्खलित हो जाते हैं और धर्म में प्रवेश सुलभता से नहीं पा सकते। जो दिन में या रात में, अकेले में या समुदाय में, सोते हुए या जागते हुए कभी पाप में प्रवृत्त नहीं होता, वह महान् और वही आत्मनिष्ठ हो सकता है।
44- यदा यदा हि लोकेस्मिन्, ग्लानिधर्मर्मस्य जायते।
तदा तदा मनुष्याणां, ग्लानिं यात्यात्मनो बलम्।।
इस संसार में जब-जब धर्म की ग्लानि होती है, तब-तब मनुष्यों का आत्मबल ग्लान-हीन हो जाता है।
आत्मबल के समक्ष भौतिकबल नगण्य है। भौतिक शक्ति संपन्न व्यक्ति कितना ही पराक्रमी हो, किंतु दूसरों से सदा भयभीत रहता है। जिस हिटलर के नाम से विश्व कांपता था, वह हिटलर अपने भीतर स्वयं कितना प्रकंपित था, यह आज स्पष्ट हो चुका है। हिटलर एक कमरे में सो नहीं सकता था। शादी भी मरने के कुछ समय पूर्व की थी। पत्नी पर विश्वास नहीं। निजी डॉक्टरों ने कहा कि वह अनेक बीमारियों से ग्रस्त था। बहुत बार बाहर जाने के लिए भी अपनी शक्ल का दूसरा नकली व्यक्ति भेजता था। प्रतिक्षण भयभीत था। क्या इसे वीरत्व कहा जा सकता है।
अस्तित्व की दिशा में जो व्यक्ति कदम उठाता है उसका आत्मबल क्रमशः वर्धमान रहता है। उसके पास चाहे शरीर-बल इतना न भी हो किन्तु आत्म-बल परिपूर्ण होता है। वह कांपता नहीं रहता। वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। भय जीवनैषणा के कारण है। जब जीवननैषणा ही नहीं रहती तब भय किसका, आत्मबल की क्षीणता का कारण है- धर्म-अस्तित्व के सम्यग् अवबोध का अभाव। धर्म ने कभी मनुष्य को भीरु नहीं बनाया। सही धार्मिक व्यक्ति भीरु हो भी नहीं सकता। जहां जाने से लोग डरते थे वहां महावीर महाविषधर चंडकौशिक के निवासस्थल पर जाकर ध्यानस्थ खड़े हे जाते हैं। बुद्ध ‘अंगुलिमाल’ के सामने उपस्थित होते हैं। महावीर का श्रावक सुदर्शन ‘अर्जुनमाली’ को बिना किसी शस्त्रास्त्र के परास्त कर उसे महावीर के चरणों में उपस्थित कर देता है। धर्म से जिस आत्मशक्ति का जागरण होता है, वैसा जागरण और किसी से नहीं होता। धर्म के प्रति उदासीन होने का अर्थ है, स्वयं के प्रति उदासीन होना। धर्म की क्षीणता में आत्मशक्ति की क्षीणता अनिवार्य है।