धर्म का मार्ग है स्थायी सुख पाने का मार्ग : आचार्यश्री महाश्रमण
10 सितम्बर 2023 नन्दनवन, मुम्बई
जिनवाणी का अमृतपान कराते हुए आचार्यश्री महाश्रमणजी ने फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया कि जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत होता है या अचैतन्य के द्वारा कृत है? उत्तर दिया गया कि जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत है, अचैतन्य के द्वारा कृत नहीं है।
धर्म के जगत में आत्मवाद का सिद्धांत है, जो बहुत महत्वपूर्ण है। दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत आत्मा से जुड़ा हुआ कर्मवाद है। जितनी भी अध्यात्म-धर्म की साधना है वह मुख्यतया आत्मवाद पर आधारित है। आत्मा है तो इस सिद्धांत का महत्व है। आत्मा की मान्यता नहीं है तो फिर अध्यात्म और धर्म का मूल्य ही नहीं रहता है। आत्मा तो शाश्वत है। वह निर्मल-सुखमय रहे, उसके लिए उसके लिए अध्यात्मवाद-धर्मवाद है। संसार के सुख भौतिक है,अस्थायी है। इन्द्रियों से मिलने वाला सुख अस्थायी है। स्थायी सुख पाने का मार्ग अध्यात्म और धर्म का मार्ग है। कर्म की निर्जरा से होने वाला सुख आन्तरिक सुख हो सकेगा। धन से तत्कालिक सुख मिल सकता है, धर्म से सर्वकालिक सुख प्राप्त हो सकता है।
जिन पदार्थों से हम सुख पाना चाहते हैं, वे पदार्थ दुःख का कारण भी बन सकते हैं। क्षणिक सुख-दुःख के कारण हैं। काम-भोग अनर्थों की खान होते हैं। संसारी आत्मा के जन्म-मरण भी है। मोक्ष प्राप्त करने के बाद आत्मा को सर्वकालिक सुख, शाश्वत सुख प्राप्त हो जाता है।
व्यक्ति जैसा आचरण करता है, वैसा कर्म बन्ध हो जाता है और फिर कर्म का फल भी भोगना पड़ता है। निश्चय में कर्म ही किसी का बिगाड़ कर सकते हैं। निमित्त कोई बन सकता है। पुण्य-पाप का अपना-अपना प्रभाव होता है। अयोगी केवली आत्मा कर्म का बंध नहीं करती है। कर्म का बंध संसारी आत्माएं ही करती है। शुद्व आत्मा कर्म बंध नहीं करती है। आत्मा के साथ पुद्गल शरीर जुड़ा है। पहले से कर्म बंधे हुए हैं, वे ही नए कर्म का बंधन करती है। बंधे हुए को ही बंधन होता है। कर्म के ही कर्म लगते हैं।
खुद की आत्मा ही सुख-दुःख देने वाली है। जैन दर्शन में ईश्वरकृत सुख-दुःख नहीं होता। आत्मा ही परम ऐश्वर्य से सम्पन्न है। आत्मा को ही ईश्वर मान लें। हम अपने जीवन में त्याग और तप करें, संयम करें। संवर और निर्जरा से आत्मा परम सुख को प्राप्त हो सकती है। संसाधनों से बाह्य सुख मिल सकता है पर साधना से परम सुख मिल सकता है। त्याग-संयम की साधना शांति के कारण है।
आचार्यवर ने 12 सितम्बर से प्रारम्भ हो रहे पर्युषण महापर्व के संदर्भ में प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि पर्युषण महापर्व अध्यात्म की साधना का पर्व होता है। जैन श्वेतांबर परंपरा में 12 सितम्बर से यह प्रारंभ हो रहा है। पर्युषण की अच्छी आराधना करनी चाहिए। गृहस्थों को भी इन आठ दिनों में धर्म को मुख्यता देनी चाहिये। आत्मा के आस-पास ज्यादा रहें। रात्रि भोजन न करें। सचित्त-जमीकंद का इन आठ दिनों में उपयोग न हो। प्रतिदिन प्रतिक्रमण हो जाये। प्रवचन के उपरांत तपस्वियों ने अपनी-अपनी धारणा के अनुसार तपस्या के प्रत्याख्यान पूज्यवर से ग्रहण किये। बाबूलाल जैन ‘उज्ज्वल’ ने समग्र जैन चातुर्मास सूची का आचार्यवर की सन्निधि में लोकार्पण करते हुए अपनी भावना अभिव्यक्त की। पूज्यवर ने मंगल आशीर्वचन फरमाया।
साध्वी प्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने फरमाया कि आत्मा को प्राप्त करने के लिए गुरु की अपेक्षा रहती है। कल्पवृक्ष, चिन्तामणी से तो जो कुछ मांगा जाता है, वह वस्तु प्राप्त हो जाती है, पर धर्म के माध्यम से अचिन्तित, असंकल्पित वस्तु प्राप्त हो सकती है। धर्म का मूल स्रोत आत्मा है। आत्मा का पूर्ण विकसित रूप है- परमात्मा। यदि आत्मा को जान लिया तो उसने सब कुछ जान लिया।
पूज्यवर के सान्निध्य में ट्रांसपायर कार्यक्रम आयोजित हुआ। सुप्रसिद्ध व्यवसायी मोतीलाल ओसवाल ने इस पर अपनी अभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम के निदेशक दिलीप सरावगी ने विषय के संदर्भ में अपनी प्रस्तुति दी। श्वेता लोढा ने मोतीलाल ओसवाल का परिचय प्रस्तुत किया।
दोपहर तीन बजे आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में इस्कॉन के संत गौर गोपालदास पहुंचे। उन्होंने आचार्यश्री को वंदन किया। तीर्थंकर समवसरण में उपस्थित जनता को उद्बोधित करते हुए आचार्यश्री ने भौतिकता पर आध्यात्मिकता का नियंत्रण रखने की प्रेरणा प्रदान की। इस्कान संत गौर गोपालदासजी ने कहा कि यह अच्छी बात है कि भौतिकता के दौड़ में इतने लोग आचार्यश्री महाश्रमणजी की सन्निधि में आध्यात्मिक शांति प्राप्त करने के लिए पहुंचे हैं। आदमी अपने विचारों की दिशा सही रखे तो सही दिशा में तरक्की भी हो सकती है। परिस्थितियों से पार पाने के लिए मनःस्थिति को अच्छा बनाना होगा।
कर्मणा जैन बने विरार मधुमालती वानखड़े ने एक गीत माध्यम से अपनी भावों की प्रस्तुति दी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।