देव, गुरु और धर्म पर श्रद्धा बनाती है सम्यक्त्व को पुष्ट: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

देव, गुरु और धर्म पर श्रद्धा बनाती है सम्यक्त्व को पुष्ट: आचार्यश्री महाश्रमण

14 सितम्बर 2023 नन्दनवन, मुम्बई
समता के महान साधक आचार्यश्री महाश्रमणजी के पावन सान्निध्य में पर्वाधिराज पर्युषण के तीसरे दिन सामायिक दिवस पर अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद के तत्वावधान में पूज्यवर की सन्निधि में तेरापंथ युवक परिषद, मुंबई द्वारा ‘अभिनव सामायिक कार्यशाला’ का आयोजन किया गया।
तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा पर मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि परम् योगी नयसार के भव में भगवान की आत्मा ने साधुओं से प्रेरणा मिली। इस भव में प्रभु महावीर की आत्मा ने सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया। वह जीवन धन्य-धन्य है, जिस जन्म में सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। सम्यक रूपी रत्न से बड़ा कोई रत्न नहीं, सम्यक्त्व से बड़ा कोई मित्र या बन्धु नहीं, सम्यक्त्व से बड़ा कोई लाभ नहीं। चारित्र भी बड़ा लाभ है, पर चारित्र भी सम्यक्त्व पर ही टिकता है। अज्ञान को ज्ञान बनाने वाला सम्यक्त्व ही है। सम्यक्त्व प्राप्ति हो जाना व सम्यक्त्व की निर्मलता रहना विशेष बात है। जो जिनेश्वर भगवान ने प्रवेदित किया है, वही सत्य है, वह सत्य ही है, निशंक है। इस सत्य को जो मान लेता है तो सम्यक्त्व को पुष्टता प्राप्त हो जाती है।
हमारे चारों कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ मंद हों। यह सम्यक्त्व संपोषण का दूसरा उपाय है। तीसरा उपाय है तत्व बोध करें। बिना दुराग्रह के बात को समझने, पकड़ने का प्रयास करें। ये तीन उपाय सम्यक्त्व संपोषण के साधन है। तथ्यों को सद्‌भाव से उसी रूप में उपदिष्ट करना और भाव से श्रद्धा रखना, यह भी सम्यक्त्व हो जाता है। देव, गुरु और धर्म पर श्रद्धा भी सम्यक्त्व को पुष्ट बनाने वाली है।
क्षयोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है तो सम्यक्त्व की पराकाष्ठा है। सम्यक्त्व में अगले आयुष्य का बन्ध वैमानिक देवलोक का ही बंधता है। नयसार का दूसरा भव प्रथम सौधर्म देवलोक का है। देवता का भी कभी-कभी आयुष्य सम्पन्न होता है। देवता आयुष्य पूर्ण कर वापस देव गति या नरक गति में नहीं जा सकता। उनके मनुष्य या तिर्यन्च गति का ही आयुष्य बंध होता है। मनुष्य का जन्म मिलना भी तो विशेष बात है। उच्च कुल मिलना और अच्छी बात है। नयसार की आत्मा को तीसरे भव में भगवान ऋषभ के कुल में जन्म लेने का मौका मिला। भरत के पुत्र और ऋषभ के पौत्र के रूप में वह आत्मा मरीचिकुमार के रूप में उत्पन्न हुई। पूज्यवर ने मरीचि के भव का विस्तार से वर्णन करवाया कि किस प्रकार भगवान ऋषभ की देशना सुनकर मरीचि के मन में पुनः वैराग्य का बीज अंकुरित हुआ।
तीर्थंकरों की देशना द्वारा कितनों को सन्मार्ग प्राप्त हो सकता है। प्रवचन सुनना भी अच्छी बात होती है। वर्तमान में नन्दनवन में साधु-साध्वियां तो पर्युषण की साधना में संलग्न है ही, साथ-साथ कितने-कितने श्रावक-श्राविकाएं भी पर्युषण महापर्व की आराधना हेतु यहां पहुंचे हुए हैं और निरंतर धर्म, ध्यान, साधना, जप, स्वाध्याय, तप आदि में लगे हुए हैं। इससे यह नन्दनवन भी तपोवन जैसा प्रतीत हो रहा है।
पूज्यवर ने सामायिक दिवस के संदर्भ में पावन पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि आज पर्युषण के अंतर्गत सामायिक दिवस है। सामायिक भी एक साधना है। तपस्याएं भी गृहस्थों में चल रही है। कितनी विराट उपस्थिति यहां पर है, जो धर्म में समय लगा रहे हैं। श्रावक होना भी पंचम गुणस्थान की पदवी है। आस-पास से कितने-कितने लोग धर्म की गंगा में डुबकी लगाने आये हुए है। आत्मा रूपी नदी में संयमी रूपी पानी है, शील जिसका तट है। ऐसी नदी में स्नान करने से अन्तरात्मा निर्मल बन सकती है।
सामायिक में जागरूकता रहे। श्रावक के छः कोटि, आठ कोटि और नौ कोटि की सामायिक हो सकती है। श्रावक नौ कोटि की सामायिक भी करे तो भी साधु जैसी सामायिक नहीं हो सकती। सामायिक न शुभ योग है, न अशुभ योग है, सामायिक तो संवर है। सामायिक अपने आप शुभ-अशुभ योग नहीं है लेकिन सामायिक में शुभ योग हो सकते हैं।

पूज्यवर ने श्रावक-श्राविकाओं शनिवारीय सामायिक की प्रेरणा प्रदान कराते हुए फरमाया कि प्रत्येक शनिवार को सायं 7 से 8 बजे के बीच सामायिक आवश्यक रूप से हो जाए, ऐसा प्रयास करना चाहिये। पचास वर्ष की अवस्था के बाद तो प्रतिदिन एक सामायिक करने का प्रयास करना चाहिए। युवा व किशोर रोज एक सामायिक न कर सकें तो सप्ताह में एक सामायिक करने का प्रयास कर सकते हैं। सामायिक के दौरान कोई दोष लग जाए तो आलोयणा लेकर सामायिक को शुद्ध बनाने का प्रयास करना चाहिए। साधु-साध्वियां भी श्रुत सामायिक कर सकते हैं। सामायिक के द्वारा आत्म-कल्याण की दिशा में आगे बढा जा सकता है।
पूज्यप्रवर से तपस्वियों ने अपनी धारणा के अनुसार तपस्या के प्रत्याख्यान लिए।
साध्वी प्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी, मुख्य मुनिश्री महावीरकुमारजी, साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी एवं मुनि जीतेन्द्रकुमारजी, मुनि केशीकुमारजी, मुनि नमनकुमारजी एवं साध्वी प्रफुल्लप्रभाजी द्वारा वक्तव्‍य एवं गीत के द्वारा प्रेरक अभिव्‍यक्तियां दी गई।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश- कुमारजी ने किया।