जैन धर्म में नहीं होता संवत्सरी जैसा कोई पर्व : आचार्यश्री महाश्रमण
19 सितम्बर 2023 नन्दनवन, मुम्बई
अध्यात्म जगत के शिखर पुरुष महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पर्युषण पर्व के शिखर दिवस ‘संवत्सरी महापर्व’ पर नन्दनवन में श्रद्धालुओं से जनाकीर्ण बने तीर्थंकर समवसरण में पावन देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि आज जैन धर्म का पावन महापर्व संवत्सरी है, जो वर्ष भर में एक बार आता है। वर्ष भर में संवत्सरी जैसा कोई पर्व नहीं होता है। आज के दिन प्रायः सभी चारित्रात्माएं एवं समणी वर्ग चौविहार उपवास करते हैं। श्रावक-श्राविका समाज व कितने-कितने बच्चे उपवास-पौषध की आराधना करते हैं। आज का दिन क्षमा और मैत्री से जुड़ा दिन भी है। पर्युषण-संवत्सरी कितना आध्यात्मिक महोत्सव का दिन है। लगभग नौ दिन का यह कार्यक्रम हो जाता है।
अध्यात्म साधना के महापर्व पर्युषण का शिखर दिन है -संवत्सरी महापर्व। आज संवत्सरी को ‘भगवती’ के अलंकरण से अलंकृत किया जाता है। आज से संवत्सरी को भगवती संवत्सरी कहा जा सकता है। भगवती संवत्सरी आराधनीय है। आज के दिन जैसी धर्माराधना संभवतः किसी अन्य दिन में देखने को नहीं मिलती है। जैन शासन में नमस्कार महामंत्र का भी अलग महत्व है। नमस्कार महामंत्र को धारण करने वाला, जप करने वाला जैन होता है। श्रावकों में जैनत्व रहे, जैन जीवन शैली रहे।
तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा को आगे बढ़ाते हुए फरमाया कि प्रणत देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर नयसार की आत्मा 27वें भव में प्रवेश कर रही है। चौथे आरे के 75 वर्ष 10 महीने शेष थे। आषाढ़ शुक्ला छठ के दिन प्रभु महावीर की आत्मा देवलोक से च्युत हुई और इसी भरत क्षेत्र में वैशाली नगरी के उपनगर ब्रह्मकुण्ड ग्राम के ऋषभदत्त की भार्या देवानन्दा ब्राह्माणी की कुक्षी में वह आत्मा प्रविष्ट होती है। भावी तीर्थंकर की माता होना कितने बड़े सौभाग्य की बात है। कुछ समय बाद ही देवताओं द्वारा उनके गर्भ को त्रिशला के गर्भ में हस्तांतरित किया गया। इस दौरान त्रिशला ने चौदह दिव्य स्वप्न देखे। गर्भ काल के दौरान माता को कष्ट होता देख कर शिशु ने गर्भ में हलन-चलन बंद कर दिया। इससे त्रिशला माता अधिक दुखी हो गई। शिशु ने पुनः हलन-चलन प्रारंभ किया और गर्भ में ही यह संकल्प कर लिया की माता-पिता के रहते हुए मैं दीक्षा नहीं लूंगा।
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को शिशु का जन्म हो जाता है। 12 दिन होने पर नामकरण किया जाता है। नाम रखा जाता है- वर्धमान। वर्धमान को शिक्षा के लिए भेजा गया। शादी भी हो जाती है। पुत्री के रूप में एक सन्तान भी हुई। नाना भी बन गये थे। दोहित्री का नाम शेषवती रखा गया था। वर्धमान के माता-पिता ने अनशन स्वीकार कर आयुष्य को पूर्ण किया। उसके बाद वर्धमान दीक्षा स्वीकार कर आत्म साधना में लग गये। विभिन्न रूपों में साधना कर आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। साढ़े बारह वर्ष की साधना के पश्चात केवल्य प्राप्त कर तीर्थ की स्थापना की। जगह-जगह विचरण कर लोक कल्याण का कार्य करते रहे। लगभग 72 वर्ष की अवस्था में 16 प्रहर के अनशन में कार्तिक कृष्णा अमावस्या को प्रभु निर्वाण को प्राप्त हो गये। हम भगवान महावीर से जुड़े धर्मसंघ में साधना कर रहे हैं। हमारे धर्मसंघ का विकास होता रहे, हम सभी आत्मकल्याण की दिशा में आगे बढ़ते रहें।
तेरापंथ की यशस्वी आचार्य परंपरा को वर्णित करते हुए तेरापंथ के ग्यारहवेें अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने फरमाया कि जैन शासन में अनेक प्रभावक आचार्य हुए हैं। आचार्य सुधर्मा से लेकर अनेक आचार्य हुए हैं। आज से दो सौ साढे़ तिरेसठ वर्ष पूर्व जैन सम्प्रदाय में एक और शासन उभरा, जिसका नाम था- श्वेताम्बर परंपरा का तेरापंथ। पूज्यवर ने अपने पूर्व के दस आचार्यों के गौरवशाली और संघ प्रभावक व्यक्तित्व व कृर्तत्व को उजागर करते हुए उनके जीवन के गौरवशाली प्रसंगों को वर्णित किया।
साध्वी प्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने धर्मसंघ के ग्यारहवें आचार्य युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी के समुज्ज्वल जीवन चरित्र एवं जीवन प्रसंगों को विस्तार से व्याख्यायित किया। मुख्यमुनि महावीरकुमारजी ने पाथेय प्रदान करवाया। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने गीत का संगान किया। प्रवचन के मध्य निर्धारित समय पर छह प्रहरी पौषध करने वालों को इसका प्रत्याख्यान एवं तपस्वियों को उनकी धारणानुसार तपस्या के प्रत्याख्यान करवाये गये। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।