गुरुदेव तुलसी का संघ को प्रसाद है ज्ञानशाला : आचार्यश्री महाश्रमण
आचार्यप्रवर के पावन सान्निध्य में ज्ञानशाला प्रशिक्षक सम्मेलन और दीक्षांत समारोह का आयोजन
नंदनवन, 25 सितंबर, 2023
तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न किया गयाµभंते! भाव कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? उत्तर दिया गयाµगौतम! भाव छः प्रकार का प्रज्ञप्त हैµऔदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षामोपशमिक, पारिणामिक और सान्निपातिक। अध्यात्म जगत में आत्मवाद का सिद्धांत है और कर्मवाद का भी सिद्धांत है। अध्यात्मवाद के ये दो महास्तंभ हैं। आत्मा है, तो फिर कर्म की बात है। आत्मा और कर्म से जुड़ी हुई स्थिति भाव है। कर्मों के उदय और विलय से निष्पन्न होने वाली आत्मा की अवस्था भाव है। भाव जीव का स्वरूप है।
आत्मवाद और कर्मवाद के आलोक में हम भाव को देख सकते हैं। कर्मों के उदय से जीव की जो अवस्था बनती है, वह औदयिक भाव है। कर्मों का उदय कारण है, उनके उदय से जो अवस्था बनती है, वह कार्य है। उदय तो आठों ही कर्मों का होता है, पर उपशम केवल मोहनीय कर्म का ही होता है। उपशम भाव स्थायी नहीं होता। मानो अंगारे ऊपर राख आ गई हो। पर भीतर में तो आग है। वैसे ही मोहनीय कर्म का उपशम तो हो सकता है, पर उस स्थिति में मोहनीय कर्म अंगारे पर आई राख के समान दब जाता है।
क्षय भी आठों कर्मों का होता है, पूर्व क्षय सबसे पहले मोहनीय कर्म का होता है। इसके बाद तेरहवें गुणस्थान में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय कर्म का क्षय होता है। ये चारों घाति कर्म हैं, जो क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। शेष चार अघाति कर्म हैं, वे जब सिद्धत्व की प्राप्ति होती है, गुणस्थानों का समापन होता है, तब क्षय हो जाते हैं। क्षय होने से कर्मों का अनुदय हो जाता है। उदय है, तो क्षय नहीं है, क्षय है, तो उदय नहीं है।
क्षायोपशमिक भाव क्षय और उपशम की निरंतर चलने वाली प्रक्रिया से होने वाले जीव का पर्याय है। क्षायोपशमिक भाव चार घाति कर्मों का ही होता है। अघाति कर्मों का क्षायोपशमिक भाव बिलकुल नहीं होता। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रथम चार ज्ञान, तीन अज्ञान और धर्मगुणन ये आठ बातें प्राप्त होती हैं। दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से भी आठ चीजें-पाँच इंद्रियाँ और तीन दर्शन प्राप्त होते हैं। मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से भी आठ चीजें, चार चारित्र, देश विरति और तीन दृष्टि प्राप्त होती है। अंतराय कर्म के क्षयोपशम से भी आठ चीजें-पाँच लब्धि, (दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य) तीन वीर्य (बाल, पंडित और बाल पंडित) प्राप्त होती है। सिद्धों ने केवलियों को छोड़कर समस्त संसारी जीवों के क्षयोपशम भाव होता है। मात्रा में भले थोड़ा हो क्षयोपशम भाव नहीं है, तो जीव अजीव हो जाए। तरतमता हो सकती है।
पारिणामिक भाव परिणमन से होने वाला भाव है। यह तो हर भाव के साथ सब जीवों में होता है। आगम को पढ़ने से छः भावों को और विस्तार से समझा जा सकता है। महासभा के दिशा निर्देशन में संचालित ज्ञानशाला प्रकोष्ठ को आशीर्वचन प्रदान करते हुए परम पावन ने फरमाया कि ज्ञानावरणीय कर्म का कार्य हैµज्ञान को प्रकट होने से रोकना। पर किसी भी जीव की बोध चेतना को पूर्णतया आवरण नहीं कर सकता। ज्ञानशाला महासभा की महत्त्वपूर्ण परियोजना है। प्रशिक्षिकों का प्रशिक्षण भी होता है। अभिभावक भी ज्ञानशाला में बच्चों को भेजते हैं। प्रशिक्षण और प्रबंधन दोनों चलते हैं। ज्ञानशाला एक व्यापक क्रम है। गुरुदेव तुलसी का यह प्रसाद है।
ज्ञानशाला के राष्ट्रीय संयोजक सोहनराज चोपड़ा, महासभा की ओर से किशनलाल डागलिया ने भावों की अभिव्यक्ति दी। ज्ञानशाला प्रशिक्षिकाओं द्वारा गीत की प्रस्तुति हुई। मुनि विश्रुतकुमार जी ने भी अपनी प्रेरणाएँ दी। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने जीव-अजीव के ज्ञान के बारे में समझाया।