संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
मेघः प्राह
 
(1) किं ज्ञेयं कि×च हेयं स्याद्, उपादेय×ज किं विभो!
शाश्वते नाम लोकेऽस्मित्, किमनित्य×च विद्यते।।
 
मेघ बोला-विभो! ज्ञेय क्या है? हेय और उपादेय क्या है? इस शाश्वत जगत् में अशाश्वत क्या है?
जिज्ञासा ज्ञान-प्राप्ति की सच्ची भूख है। भूखा व्यक्ति जिस प्रकार भोजन के लिए व्याकुल होता है, जिज्ञासु व्यक्ति भी उसी प्रकार संदेहशमन के लिए आतुर रहता है। मेघ का मन यह जानना चाहता है कि संसार में जानने, छोड़ने और आचरण करने की क्या चीजें हैं, जिससे मैं स्वात्महित हो साध सकूँ।
 
 
भगवान् प्राह
 
(2) धर्मोधर्मस्तथाकाशं, कालश्च पुद्गलस्तथा।
जीवो द्रव्याणि चैतानि, ज्ञेयदृष्टिरसौ भवेत्।।
 
भगवान् ने कहा-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव-पाँच अस्तिकाय तथा काल-ये छह द्रव्य हैं। यह ज्ञेयदृष्टि है।
ये छह द्रव्य विश्व-व्यवस्था के संघटक हैं। इनसे संसार के स्वरूप का बोध होता है। विश्व चेतना और अचेतन की संघटना है। संसारी आत्मा स्वतंत्र होते हुए भी सर्वथा कर्म से स्वतंत्र नहीं होती। वह कर्म-पुद्गलों के प्रभाव से सतत नाटकीय परिवर्तन करती रहती हैं छह द्रव्यों का समवाय संसार है।
संसार की उत्पत्ति के विषय में दार्शनिकों की भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं। कुछ जड़ से चेतन की उत्पत्ति मानते हैं, कुछ प्रलय के बाद जो नया सृजन होता है। उसे संसार कहते हैं, कुछ कहते हैं वह सृष्टि ईश्वरकृत है। जैन दर्शन की समन्वयात्मक दृष्टि ने इसे यों देखा है कि संसार न ईश्वरकृत है, न जड़ से उत्पन्न होता है और न प्रलय के बाद नया सृजन ही होता है। वह पहले भी था, है और रहेगा। जड़ और चेतन का सनातन विरोध है। जड़ से चेतन पैदा नहीं हो सकता। गीता में कहा है-असत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् का विनाश नहीं होता। केवल वस्तुओं का रूपांतरण होता है। जड़ और चेतन दोनों की पर्याएँ-अवस्थाएँ बदलती रहती हैं। एक जगह का विनाश दूसरी जगह को आबाद करता है। एक व्यक्ति एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में चला जाता है। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से शाश्वत है और पर्याय की दृष्टि से अशाश्वत। संसार षड्द्रव्यात्मक है। उनका स्वरूप इस प्रकार है-
धर्मास्तिकाय-गति का माध्यम तत्त्व।
अधर्मास्तिकाय-स्थिति का माध्यम तत्त्व।
आकाशास्तिकाय-अवगाह देने वाला तत्त्व।
काल-परिवर्तन का हेतुभूत तत्त्व।
पुद्गलास्तिकाय-वर्ण, गंध, रस, स्पर्शयुक्त द्रव्य।
जीवास्तिकाय-चेतन द्रव्य।
 
(3) जीवाऽजीवौ पुण्यपापे, आस्रवः संवरस्तथा।
निर्जरा बंधमोक्षौ च, ज्ञेयदृष्टिरसौ भवेत्।।
 
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-ये नौ तत्त्व हैं। यह ज्ञेयदृष्टि है।
मुख्यतया तत्त्व दो हैं-जीव और अजीव। किंतु मोक्ष के साधन के रहस्य को बतलाने के लिए इनके नौ भेद किए गए हैं। इन नौ भेदों में प्रथम भेद जीव का है, अंतिम भेद मोक्ष का है और बीच के भेदों में मोक्ष के साधक और बाधक साधनों का वर्णन है।
जीव-चैतन्य का अजस्र प्रवाह।
अजीव-चैतन्य का प्रतिपक्षी-जड़।
पुण्य-शुभ कर्म-पुद्गल।
पाप-अशुभ कर्म-पुद्गल।
आस्रव-कर्म-ग्रहण करने वाले आत्म-परिणाम।
संवर-कर्म-निरोध करने वाले आत्म-परिणाम।
निर्जरा-कर्म-निर्जरण से होने वाली आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता।
बंध-आत्मा के साथ शुभ-अशुभ कर्म का बंध।
मोक्ष-कर्म विमुक्त-अवस्था।
 
(4) अस्त्यात्मा शाश्वतो बंधः, तदुपायश्च विद्यते।
अस्तिमोक्षस्तदुपायो, ज्ञेयदृष्टिरसौ भवेत्।।
 
(1) आत्मा है। (2) आत्मा शाश्वत है। (3) बंध है। (4) बंध का उपाय है। (5) मोक्ष है। (6) मोक्ष का उपाय है। यह ज्ञेयदृष्टि है।
 
(5) बंधं पुण्यं तथा पापं, आस्रवः कर्मकारणम्।
भवबीजमिदं सर्वं, हेयदृष्टिरसौ भवेत्।।
 
पुण्य, पाप, बंध और कर्मागमन का हेतुभूत आस्रव-ये सब संसार के बीज हैं। यह हेयदृष्टि है।
 
(क्रमशः)