अवबोध

स्वाध्याय

अवबोध

कर्म बोध
अवस्था व समवाय

प्रश्न 37 : नियति को कारण क्यों कहा गया है?
उत्तर : नियति का अर्थ है होनहार अर्थात् एक परिस्थितिगत एवं प्रकृतिगत व्यवस्था। सिद्धांत की भाषा में यह एक निकाचित अवस्था है। पुरुषार्थ से नियति का निर्माण होता है। नियति के निर्मित होने के बाद पुरुषार्थ अकिंचित्कर हो जाता है। सही दिशा में पुरुषार्थ करने के बावजूद यदि उसका परिणाम विपरीत आता है, तो उसे नियति ही मानना होगा। इस प्रकार किसी भी कार्य की निष्पत्ति में पाँचों कारणों की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 38 : ईश्वरवादी सुख-दु:ख की प्राप्ति में ईश्वर को मुख्य कारण मानते हैं, कर्मवादी कर्म को मानते हैं। इन दोनों में क्या शाब्दिक अंतर ही है या मौलिक?
उत्तर : ईश्वरवादी व कर्मवादी की मान्यता में मौलिक भेद है। ईश्वरवादी की यह मान्यता है कि ईश्वर की इच्छा के बिना वृक्ष का पत्ता भी नहीं हिलता। जीवों की कोई भी प्रवृत्ति व सुख-दु:ख की उपलब्धि ईश्वरकृत होती है। इसमें ईश्वर के अलावा किसी की यह ताकत नहीं जो फेरबदल कर सके। कर्मवादी सुख-दु:ख को कर्मकृत मानता है, पर केवल उसे ही सब कुछ नहीं मानता। व्यक्ति अपने सत् पुरुषार्थ से कर्म को तोड़ सकता है, बदल सकता है, अप्रभावी बन सकता है।

प्रश्न 39 : सुखाभिलाषा प्राणीमात्र का स्वभाव है दु:ख का नहीं, तो फिर वे स्वयं दु:ख क्यों भुगतेंगे?
उत्तर : सुख-दु:ख पुण्य-पाप के अनुसार मिलते हैं, चाहने के अनुसार नहीं। यदि चाहने के अनुरूप मिले, फिर तो कर्म कोई चीज ही नहीं। जो इच्छा की, वही मिल गया। ‘बुद्धि कर्मानुसारिणी’ यह उक्ति इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है। कर्म उदय में आते हैं, बुद्धि वैसा ही व्यवहार करने लग जाती है। बुद्धि जैसा व्यवहार करती है, वैसा ही काम किया जाता है। जैसा काम किया जाता है, वैसा ही फल मिलता है।

बंध व विविध

प्रश्न 1 : कार्मण शरीर और कर्म एक ही है या दोनों में भिन्नता है?
उत्तर : स्थूल रूप में कार्मण शरीर और कर्म एक ही है। इस शरीर का उपादान कर्म ही है। सूक्ष्मता में कर्म वर्गणा के संघात को कार्मण शरीर कहते हैं। संघात में कुछ और पुद्गल स्कंधों की अपेक्षा रहती है। इसमें वर्गणाओं का वर्गणा के साथ एकीभाव जरूरी होता है। अलग-अलग स्थिति, अनुभाग आदि से प्रत्येक कर्म वर्गणा भिन्न-भिन्न है। यही दोनों में अंतर है।
(क्रमश:)