उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)
पर्युषण पर्व

संवत्सरी पर्व को कैसे जीएँ?
प्रतिवर्ष संवत्सरी पर्व आता है और अपनी आध्यात्मिक ज्योति-किरणों को बिखेर कर चला जाता है। मनुष्य उन ज्योति-किरणों से कितना प्रभावित होता है? उनका प्रभाव कब तक और कितना रहता है? वह अल्पकालिक होता है या दीर्घकालिक? ये ऐसे प्रश्न हैं, जो सांवत्सरिक पर्व में आस्था रखने वाले प्रत्येक व्यक्त् िसे समाधान चाहते हैं। कोई इनका उत्तर दे या न भी दे, पर कई बार अनुत्तरित उत्तर भी सबके उत्तर बन जाते हैं। जब तक व्यक्ति का चित्त निर्मल नहीं होता, भीतर की चेतना में कोई रूपांतरण नहीं होता, अपने स्वार्थों को नहीं छोड़ा जाता और अलोभ-अनासक्ति का लाभ किसी को नहीं मिलता तो मानना चाहिए पर्व आया और चला गया। उसका कोई विशेष लाभ नहीं मिला। पर्व जीवन को बदलने का महान उपक्रम है। वह जीवन को निर्मलता के प्रकाश और ज्योति से भरने वाला दीपस्तंभ है। यदि दीपस्तंभ के पास रहकर भी जीवन ज्योतिर्मय नहीं बनता है, जीवन का रूपांतरण नहीं होता है तो समझना चाहिए कि हमने पर्व को मनाया तो बहुत है पर उसे जीने का प्रयास नहीं किया।

स्वाध्याय

प्रश्न किया गयाµ‘सज्झाएणं भंते! जीवे किं जणयइ?’ स्वाध्याय करने से जीव क्या प्रापत करता है? उत्तर दिया गयाµ‘सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ।’ स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है।
हमारे जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष हैµज्ञान। जिस आदमी में ज्ञान का अभाव होता है, वह एक प्रकार से अंधा होता है। अंधे आदमी के लिए जैसे बहुत सारी चीजें अज्ञात रह जाती हैं, वैसे ही आदमी के ज्ञान पर जब आवरण आया हुआ होता है तब वह जान नहीं पाता। जैन कर्मवाद के अनुसार आठ कर्मों में पहला कर्म हैµज्ञानावरणीय कर्म। यह हमारे ज्ञान को आवृत्त करता है। जिस प्रकार आँख पर पट्टी लगा लेने से दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म का उदय हो जाने से आदमी जान नहीं पाता। आदमी का यह लक्ष्य रहे कि जीवन में ज्ञान का विकास हो और ज्ञान का विकास तब होता है जब ज्ञानावरणीय कर्म कमजोर पड़ता है। ज्ञानावरणीय कर्म को हलका या कमजोर करने का एक उपाय हैµस्वाध्याय। प्राकृत भाषा में इसे सज्झायं कहा जाता है। यह स्व और अध्याय दो शब्दों से बना है। अपना अध्ययन करना, अपने बारे में जानना स्वाध्याय है। स्वाध्याय का सीधा संबंध आत्मा के साथ है। आत्मा के बारे में जान लेने का मतलब है अध्यात्म के बारे में जान लेना। अध्यात्म को जानने के लिए आध्यात्मिक विषयों का अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन स्वाध्याय का एक प्रकार है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार इस प्रकार भी व्याख्या की जा सकती हैµ‘सुष्ठु अध्यायः इति स्वाध्यायः’ अच्छी तरह सर्वांगीण रूप में अध्ययन करना स्वाध्याय है। पढ़ना-पढ़ाना आदि स्वाध्याय के अंग हैं। पठन-पाठन से अज्ञान का आवरण पतला पड़ता है अथवा उसमें छिद्र हो जाते हैं, जिससे ज्ञान की रश्मियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
ज्ञान-प्राप्ति के लिए विद्यालय बने हुए हैं। चूँकि हम लोग पदयात्रा करते हैं इसलिए बहुधा विद्यालयों में हमारा प्रवास होता है। जगह-जगह विद्यालयों की विपुलता है। छोटे-छोटे गाँवों में भी विद्यालय मिलते हैं। सरकार भी शिक्षा के प्रति जागरूक है। गरीब बच्चों को भी शिक्षा का मौका मिले, उसके लिए भी सरकार सचेष्ट है और शिक्षा की व्यवस्था कर रही है। अज्ञान के कारण आदमी अनेक रूढ़ियों को पकड़ लेता है और गलत काम भी कर लेता है। शिक्षा का विकास होने से अज्ञान जनित समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है।
आध्यात्मिक क्षेत्र में स्वाध्याय का वैशिष्ट्य माना गया। साधक के लिए स्वाध्याय एक प्रकार का अमृत है। उसका एक कार्य हैµदूसरों को ज्ञान देना। जब तक साधक स्वयं स्वाध्याय नहीं करेगा, शास्त्रों आदि को नहीं पढ़ेगा, तब तक उसका ज्ञान विकसित नहीं होगा और जब उसका स्वयं का ज्ञान विकसित नहीं होता है तब वह दूसरों को ज्ञान क्या और कैसे दे पाएगा? उत्तराध्ययन सूत्र के छब्बीसवें अध्ययन में कहा गया हैµ
पुच्छेज्जा पंजलिउडो, किं कायव्वं मए इहं?
इच्छं निओइउं भंते!, वेयावच्चे व सज्झाए।।
प्रातःकाल गुरु को वंदन कर शिष्य गुरु से पूछेµगुरुदेव! आज आप मुझे किस कार्य में नियोजित करना चाहेंगे? मेरे सामने दो कार्य हैंµसेवा और स्वाध्याय। आपकी आज्ञा हो तो मैं वृद्ध, ग्लान आदि साधुओं की सेवा करूँ। आपकी आज्ञा हो तो मैं स्वाध्याय करूँ। जैसा आपका निर्देश होगा, मैं वही कार्य करूँगा। सेवा भी महत्त्वपूर्ण कार्य है और स्वाध्याय का भी अपना महत्त्व है। संस्कृत साहित्य में कहा गयाµ‘स्वाध्यात् मा प्रमद’ स्वाध्याय में कभी प्रमाद मत करो, स्वाध्याय करते रहो। स्वाध्याय को सर्वोत्तम माना गया। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि स्वाध्याय करने से ज्ञान मिलता है। ज्ञान प्राप्त कर आदमी सही आचार का पालन कर सकता है। ज्ञान ही नहीं होगा तो आचार का पालन कैसे होगा? ज्ञान है तो जीवन में अहिंसा आ जाएगी, ईमानदारी आ पाएगी और संयम आ पाएगा, किंतु ज्ञान सम्यक् होना चाहिए। सम्यक् ज्ञान का एक बड़ा आधार बनता हैµस्वाध्याय। इसीलिए स्वाध्याय को सर्वोत्तम तप कहा गया होगा, ऐसा अनुमान किया जा सकता है।
ज्ञान लौकिक भी हो सकता है और अलौकिक यानी आध्यात्मिक भी हो सकता है। अध्यात्मविद्या के संदर्भ में ज्ञान के बारे में कहा गयाµ
जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि।
जेण अता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।।
जिससे तत्त्व का बोध होता है, चित्त का निरोध होता है, आत्मा विशुद्ध होती है, उसे जिनशासन में ज्ञान कहा गया है। ज्ञान प्राप्त करने की मन में तड़प होनी चाहिए। ज्ञान प्राप्त करना भी तपस्या है, साधना है, तड़प हो तो उसे वृद्धावस्था में भी प्राप्त किया जा सकता है। हमारे धर्मसंघ के उच्चकोटि के वरिष्ठ मुनि श्री मगनलाल जी स्वामी (मंत्री मुनि) प्रौढ़ अवस्था में थे। गुरुदेव तुलसी की कुछ प्रेरणा मिली, उन्होंने प्रयास किया और उत्तराध्ययन सूत्र के अनेक अध्ययन कंठस्थ कर लिए। हालाँकि बचपन में जितनी आसानी से कंठस्थ हो सकता है, वृद्धावस्था में थोड़ी कठिनाई तो हो सकती है किंतु पुरुषार्थ हो और बुद्धि हो तो कुछ याद किया जा सकता है। हमारे यहाँ साधु संस्था में कंठस्थ करने की परंपरा रही है। हजारों-हजारों श्लोक स्मरण कर लिए जाते हैं। कुछ परिश्रम किया जाए तो ज्ञान का विकास हो सकता है। किसी भाषा को सीखना है तो कुछ पुरुषार्थ करना होगा। पहले उस भाषा की व्याकरण को सीखना होगा, साहित्य को पढ़ना होगा, तब कहीं उस भाषा का अच्दा बोध हो सकता है। संस्कृत साहित्य में कहा गयाµ

विना व्याकरणेनान्धः, बधिरः कोशवर्जितः।
साहित्यरहितः पंगुः, मूकस्तर्कविवर्जितः।।

किसी भाषा पर अधिकार प्राप्त करना है तो व्याकरण का ज्ञान अच्छी तरह करना होगा, तब प्रकाश मिलेगा। अगर व्याकरण का ज्ञान नहीं है तो भाषा की दृष्टि से उस आदमी को अंधा माना गया है। व्याकरण से आँखें खुलती हैं। जिस आदमी के पास शब्द भंडार नहीं होता है, वह आदमी बहरा होता है। क्योंकि जब कोई आदमी भाषण देगा तो वह नए-नए शब्दों का प्रयोग करेगा। यदि श्रोता को शब्दों का ज्ञान नहीं होगा तो उसके लिए उन शब्दों को सुनना और न सुनना प्रायः समान होगा। इसलिए शब्द भंडार के बिना आदमी को बहरा बताया गया है। जिसकी साहित्य में गति नहीं होती, वह भाषा की दृष्टि से पंगु होता है और जिसके पास तर्क बल नहीं होता, वह सुन लेता है किंतु प्रश्न नहीं उठा सकता। इसलिए उसे मूक कहा गया है। परिश्रम करने से आदमी किसी भी भाषा को आत्मसात् कर सकता है, शास्त्रों की गहराई में भी जा सकता है। जिसकी ज्ञान के प्रति रुचि नहीं होती, वह कैसे और कितना ज्ञान का विकास कर सकेगा?
पूज्य गुरुदेव तुलसी बड़े ज्ञानी पुरुष थे, शास्त्रों के वेत्ता थे, कई भाषाओं के वेत्ता थे। उन्होंने कितने-कितने शिष्यों को ज्ञान का दान दिया। एक बार उन्होंने साधुओं की सभा में फरमाया था कि तुम लोगों को तत्त्वज्ञान का विकास करना चाहिए। हम लोग हमेशा तुम्हारे सामने नहीं रहेंगे। आखिर स्वयं को ज्ञान का विकास करना चाहिए। अपना ज्ञान ज्यादा काम आता है। दूसरों के भरोसे ज्यादा नहीं रहना चाहिए। ज्ञान के बिला आदमी सद्गुणों से वंचित भी रह सकता है, अपना नुकसान भी कर सकता है, इसलिए व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति के लिए अध्यवसाय युक्त बने। मात्र साधु-साध्वियों को ही नहीं, गृहस्थों को भी आध्यात्मिक ज्ञान का विकास करना चाहिए। आजकल तो ज्ञान प्राप्ति की बहुत सुलभता है, इतना साहित्य, इतनी अनुकूल साधन-सामग्री उपलब्ध है और इंटरनेट आदि के माध्यम से भी ज्ञान आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी स्थितियों में समय का कुछ उपयोग यथासंभव ज्ञानात्मक विकास में भी करना चाहिए। ताकि जीवन में कुछ प्राप्त हो सके। जिसके पास ज्ञान नहीं होता, उसके सामने कठिनाई पैदा हो सकती है। हमारे धर्मसंघ में बड़े नामी और ज्ञानी संत हुए हैंµमुनिश्री घासीरामजी स्वामी। उनके जीवन का एक प्रसंग है। वे जब वैरागी अवस्था में थे, तब पूज्य गुरुदेव कालूगणी के दर्शन करने सुजानगढ़ गए। वहाँ के लोढ़ा परिवार ने उनको भोजन के लिए आमंत्रित किया। भोजन में उनको संभवतः खीर परोसी गई। उस खीर के ऊपर बादाम, पिस्ता आदि के पतले टुकड़े करके डाले गए थे। वैरागीजी ने खीर नहीं खाई। लोगों ने कहाµवैरागीजी, खीर खाइए। वैरागीजी ने कहाµखीर कैसे खाऊँ? इसके ऊपर तो कितनी लटें तैर रही हैं। वे मेवाड़ के एक गाँव दिवेर के रहने वाले थे। उस जमाने में शायद मेवाड़ में खाद्य पदार्थों का इतना विकास नहीं हुआ होगा। तभी उनके लिए अज्ञात बात थी कि ऐसा भी कोई खाद्य पदार्थ होता है। ज्ञान के अभाव में पौष्टिक चीजें भी उनके लिए लटें बन गईं।

(क्रमशः)