संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
भगवान् प्राह
 
(12) कायक्लेशः कायसिद्धिः, वीरपद्मासनान्यपि।
कायोत्सर्गश्च  पर्यंक,  गोदोहोत्कटिकादयः।।
 
कायक्लेश का अर्थ है कायसिद्धि-काया की साधना। कायसिद्धि के लिए वीरासन, पद्मासन, कायोत्सर्ग, पर्यंकासन, गोदोहिकासन, उत्कटिकासन आदि का प्रयोग किया जाता है।
कायक्लेश के चार प्रकार हैं-(1) आसन, (2) आतापना, (3) विभूषावर्जन और (4) परिकर्मवर्जन।
(1) आसन: शरीर की विशिष्ट मुद्राओं में अवस्थिति। आसन बैठे-बैठे सोकर अथवा खड़े-खड़े भी किए जा सकते हैं। आसन अनेक हैं। श्लोकगत आसनों की व्याख्या इस प्रकार है-
(1) वीरासन-वृद्ध-पद्मासन की भाँति दोनों पैरों को रखकर हाथों को पद्मासन की तरह रखकर बैठना। सिंहासन पर बैठकर उसे निकाल देने पर जो मुद्रा होती है उसे भी वीरासन कहते हैं।
(2) पद्मासन-जंघा के मध्य भाग में दूसरी जंघा को मिलाना।
(3) कायोत्सर्ग-शरीर की सार-संभाल छोड़कर तथा दोनों भुजाओं को नीचे की ओर झुकाकर खड़ा रहना अथवा स्थान, ध्यान और मौन के अतिरिक्त शरीर की समस्त क्रियाओं को त्यागकर बैठना।
(4) पर्यंकासन-जिन-प्रतिमा की भाँति पद्मासन में बैठना।
(5) गोदोहिकासन-घुटनों को ऊँचा रखकर पंजों के बल पर बैठना तथा दोनों हाथों को दोनों साथलों पर टिकाना।
(6) उत्कटिकासन-दोनों हाथों को भूमि पर टिकाकर दोनों पुतों को भूमि से न छुआते हुए जमीन पर बैठना।
(2) आतापना-सूर्य की रश्मियों का ताप लेना, शीत को सहन करना। निर्वस्त्र रहना।
(3) विभूषावर्जन-किसी भी प्रकार का शंृगार न करना।
(4) परिकर्मवर्जन-शरीर की सार-संभाल न करना।
भगवान् ने कहा-गौतम! सुख-सुविधा की चाह से आसक्ति बढ़ती है। आसक्ति से चैतन्य मूच्र्छित होता है। मूच्र्छा धृष्टता लाती है। धृष्ट व्यक्ति विजय का पथ नहीं पा सकता। इसीलिए मैंने यथाशक्ति कायक्लेश का विधान किया है।
 
मेघः प्राह
(13) सर्वदर्शिन्! त्वया धर्मः, घोराऽसौ प्रतिपादितः।
दुःखविच्छित्तये सोऽयं, तत्र दुःखं किमिष्यते?
 
मेघ बोला-हे सर्वदर्शिन्! आपने घोर धर्म का प्रतिपादन किया है। धर्म दुःख का नाश करता है, फिर उस धर्म में दुःख के लिए स्थान क्यों?
बाह्य तप का विवरण सुन मेघ का मन कंपित हो उठा। उसने कहा-‘भगवान्! आपने अत्यंत कठोर धर्म का प्रतिपादन किया है। यह सबके लिए कैसे संभव हो सकता है?’ भगवान् ने उसका समाधान किया।
 
भगवान् प्राह
(14) वत्स! न ज्ञातवान् मर्म, मर्म धर्मस्य कि×चन।
अमर्मवेदिनो लोकाः, सत्यं घ्नन्ति सनातनम्।।
 
भगवान् ने कहा-वत्स! तूने मेरे धर्म का कुछ भी मर्म नहीं समझा। जो पुरुष मर्म को नहीं जानते, वे सनातन सत्य की हत्या कर देते हैं।
 
(15) न धर्मो देहदुःखार्थं, असौ सत्योपलब्धये।
न च सत्योपलब्धिः स्याद्, अहिंसाभ्यासमन्तरा।।
 
धर्म शरीर को कष्ट देने के लिए नहीं किंतु सत्य की उपलब्धि के लिए है। अहिंसा का अभ्यास किए बिना सत्य की उपलब्धि नहीं होती।
धर्म आत्म-स्वभाव के प्रगटीकरण का माध्यम है। शरीर, इंद्रियाँ और मन-ये आत्मा के विपरीत दिशागामी हैं। जब कोई भी धर्म की यात्रा पर अभिनिष्क्रमण करता है तब ये सहायक नहीं होते हो और दूसरे लोगों की दृष्टि में भी यह यात्रा सुखद प्रतीत नहीं होती। क्योंकि लोग चलते हैं इंद्रियों की तरफ और धार्मिक चलता है इनके विपरीत।
मेघ को महावीर का यह मार्ग-दर्शन बड़ा अटपटा और दुर्धर्ष भी लगा। उसने विनम्र निवेदन किया-‘प्रभो! आनंद की इस यात्रा में यह कष्टमय जीवन क्यों?’ महावीर ने कहा-‘वत्स! यह समझ का अंतर है। मैंने धर्म का प्रतिपादन सत्य के साक्षात्कार के लिए किया है। सत्य की उपलब्धि विषयाभिमुखता में कैसे होगी? सत्य-दर्शन के लिए तो हमें सत्य पथ का अनुसरण करना होगा। इंद्रिय, मन और शरीर की अपेक्षाओं की पूर्ति में वह होता तो आज तक हो जाता, किंतु ऐसा नहीं होता। यह यात्रा सत्य की विरोधी है। सत्य के लिए तो पुनः स्वभाव की ओर चलना होगा। मैंने जो कुछ कहा है, वह सत्य की दिशा में अग्रसर होने के लिए कहा है। तुम देखो, लोग अर्थार्जन, परिवार आदि के लिए कितने कष्ट उठाते हैं। संयम की यात्रा में यदि कोई समर्पित होकर इससे आधा भी कष्ट उठा ले तो मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। लोग भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, यातना और मृत्यु तक की पीड़ा झेल लेते हैं, तब फिर यह क्या है? नासमझ लोगों ने धर्म को घोर दुःखमय कह दिया। धर्म में शरीर को सताने या न सताने का कोई प्रश्न ही नहीं है। यह तो सिर्फ आवरण को हटाने के लिए है। आवरण की क्षीणता का स्थूल परिणाम शरीर पर दिखाई देता है। इसलिए सामान्य जन उसे सताना या पीड़ा देना समझ लेते हैं। गौण को मुख्य मान लेते हैं और मुख्य को गौण। मेरा प्रतिपाद्य अहिंसा है और वह सम्यग् विवेक के बिना परिलक्षित नहीं होती। मैंने उसे ही तप कहा है जो अज्ञानपूर्ण क्रियाओं से दूर हो, जिसमें चित्त क्षुब्ध न हो, विचार क्लेशपूर्ण न हों और ध्यान आर्त न हो। अब तुम स्वयं सोचो-यह कैसे घोर होगा? व्यक्ति अपनी शक्ति को तोलकर इस मार्ग में नियोजित होता है। जो अज्ञानपूर्वक तप स्वीकार करते हैं, वे धर्म के गौरव को संवर्द्धित नहीं करते, यह दोष उनका है। मैंने धर्म की यात्रा का प्रथम चरण निर्दिष्ट किया है-विवेक। जहाँ विवेक है वहाँ धर्म के विकास की संभावना है।’ (क्रमशः)