उपासना

स्वाध्याय

उपासना

भाग - एक
आचार्य महाश्रमण
(क्रमशः) सामायिक के दौरान कभी-कभी मन में चंचलता अथवा राग-द्वेष का भाव भी आ सकता है। श्रावक यह प्रयास करे कि जितना संभव हो, मैं राग-द्वेष के भावों से विरत रहूँ। सामायिक में यदि व्यापार संबंधी बातें की जाती हैं, राजनीति और अनेक प्रकार की सांसारिक बातें की जाती हैं तो सामायिक की आराधना में कुछ स्खलना हो सकती है। इतना ही नहीं, यदि व्यापार आदि संबंधी विचार या चिंतन मन में भी आ जाए तो भी सामायिक में दोष लग जाता है। सामायिक अपने आपमें एक बड़ा व्यापार है। जैसे गृहस्थ लोग व्यापार करते हैं और पैसा कमाते हैं, वैसे ही सामायिक करने वाला साधक भी आध्यात्मिक कमाई करता है। इसका बहुत बड़ा आध्यात्मिक मूल्य है।
एक ऐतिहासिक प्रसंग के माध्यम से इस बात को स्पष्ट किया गया है कि सामायिक का कितना बड़ा मूल्य है। भगवान् महावीर का पूणिया नामक श्रावक था। वह पूणियाँ बेचकर अपनी आजीविका चलाता था, बहुत संतोषी व्यक्ति था। एक बार राजगृह नगर में भगवान् महावीर का आगमन हुआ। राजा श्रेणिक भगवान् महावीर के दर्शनार्थ पहुँचा और अगले भव का नरकगति का जो आयुष्य बंधा हुआ था, उसे विफल करने का उपाय पूछा। श्रेणिक ने कहा-प्रभो! मैं आपका भक्त नरक में जाऊँ, यह बात शोभास्पद नहीं लगती। इसलिए नरक टल जाए, ऐसा कोई उपाय हो तो बताएँ। भगवान् महावीर तो वेत्ता थे। वे जानते थे कि नरक को टालने का कोई उपाय नहीं है। फिर भी राजा श्रेणिक को समझाने के लिए भगवान् ने कहा-श्रेणिक! पूणिया नामक श्रावक मेरा भक्त है। वह बहुत सामायिक करता है। तुम उससे मात्र एक सामायिक खरीद लो तो तुम्हारा नरक-गमन टल सकता है। श्रेणिक ने कहा-प्रभो! यह तो आसान काम है। सम्राट श्रेणिक पूणिया के घर गया। सम्राट का इस कुटिया में आना कैसे हुआ? कोई काम था तो आप मुझे आदेश देते। मैं वहाँ हाजिर हो जाता। आपने यहाँ पधारने का कष्ट क्यों किया? हालाँकि मेरे लिए तो यह खुशी का विषय है कि मेरे घर में आपके चरण-स्पर्श हो गए। आप हमारे मालिक हैं, फरमाइए, मेरे लिए क्या आदेश है? सम्राट श्रेणिक ने कहा-पूणिया! अभी मैं सम्राट की हैसियत से नहीं आया हूँ। अभी तो मैं याचक बनकर आया हूँ। पूणिया-आप तो हमारे मालिक हैं, दाता हैं। हम आपसे माँग सकते हैं। आप मेरे से क्या माँगने आए हैं? श्रेणिक-पूणिया! जो चीजें मेरे पास हैं, वे तुम्हारे पास नहीं हैं और जो तुम्हारे पास हैं, वह मेरे पास नहीं हैं। पूणिया-ऐसी कौन-सी चीज चाहिए,जो आपके पास नहीं है? श्रेणिक-मुझे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। तुम बहुत सामायिक करते हो। बस, एक सामायिक मुझे दे दो। उसका जितना मूल्य लेना चाहो, ले लेना। पूणिया-राजन्! मेरे पास जो कुछ है, वह सब कुछ आपका ही है। मैं आपके किसी काम आ सकूँ, इससे बढ़कर क्या बात होगी? श्रेणिक-तो बोलो, तुम्हारी सामायिक का कितना मूल्य है? पूणिया-यह तो मैं नहीं जानता। श्रेणिक-तुम जितना चाहो, उतना धन ले लो। पूणिया-राजन्! यह अध्यात्म का सौदा है। इसमें मनगढ़ंत मूल्य का निर्धारण नहीं हो सकता। श्रेणिक-इसका उचित मूल्यांकन कौन कर सकता है? पूणिया-महाराज! भगवान् महावीर इस व्यापार के प्रमुखतम व्यवसायी हैं। उनके अतिरिक्त सही मूल्यांकन कौन करेगा?
राजा श्रेणिक पूणिया को साथ लेकर भगवान् के पास पहुँचा। पूर्व में हुए संपूर्ण वृत्तांत को सुनाकर कहा-भगवन्! आप ही त्राता हैं, वेत्ता हैं। बताइए, मैं इसे एक सामायिक का कितना मूल्य दूँ? प्रभु महावीर ने कहा-श्रेणिक! एक सामायिक की दलाली करने का मूल्य तुम्हारे राज्य के समग्र वैभव से कई गुना अधिक है। तब सामायिक का मूल्य कितना होगा, तुम स्वयं सोच लो। अब सम्राट श्रेणिक समझ गया कि सामायिक का मूल्य चुकाया नहीं जा सकता और सामायिक को खरीदे बिना मेरा नरक-गमन टल नहीं सकता यानी मुझे नरक में तो जाना ही पड़ेगा। जैन साहित्य का कथन है कि राजा श्रेणिक को हिंसा में आसक्ति आदि कारणों से नरक में जाना पड़ा। वे वर्तमान में नरक में हैं किंतु हजारों वर्ष बाद वे नरक से निकलकर आने वाले उत्सर्पिणी काल में इसी भरत क्षेत्र में भगवान् ऋषभ की तरह प्रथम तीर्थंकर बनेंगे।
प्रस्तुत प्रसंग के माध्यम से यह अवबोध देने का प्रयास किया गया है कि सामायिक करना कोई सामान्य बात नहीं है, बहुत उत्तम बात है। इसलिए श्रावक को प्रतिदिन सामायिक करने का अभ्यास या प्रयास करना चाहिए। मैं प्रायः श्रावक समाज को प्रेरणा दिया करता हूँ कि प्रतिदिन एक सामायिक कर सको तो बहुत अच्छी बात है। यदि रोजाना न भी कर सको तो एक महीने में चार कर लो। यदि चार भी न कर सको तो कम से कम दो तो कर लो। जब दो के लिए भी नकारात्मक स्वर सुनाई देता है तब मैं और न्यूनता में चला जाता हूँ और कहता हूँ कि एक तो कर लो, ताकि तुम्हारे जीवन में सामायिक का क्रम तो शुरू हो जाए।
आदमी सामायिक करे उस काल में तो समता रहे ही। अच्छा तो यह हो कि एक सामायिक का प्रभाव दिन भर बना रहे। जैसे एक बार आदमी पर्याप्त मात्रा में भोजन कर लेता है। उस भोजन का प्रभाव कई घंटों तक बना रहता है। आदमी को ऊर्जा प्राप्त होती रहती है और वह काम करता रहता है। इसी प्रकार सामायिक के अभ्यासी व्यक्ति के मन, वचन और शरीर पर भी सामायिक का प्रभाव बना रहे। सामायिक की गहराई में जाकर आदमी यह चिंतन करे कि सामायिक में तो मुझे विशेष साधना करनी ही है, उसके अतिरिक्त भी जहाँ तक संभव हो सके, मैं समता का प्रयोग करूँ। चाहे वार्तालाप करूँ, चाहे भोजन करूँ अथवा अन्य कोई कार्य करूँ, प्रत्येक कार्य राग-द्वेष मुक्त होकर करूँ। वार्तालाप के दौरान व्यक्ति यह ध्यान रखे कि मैं उत्तेजना में न आ जाऊँ, मुझे गुस्सा/आक्रोश न आ जाए, समता से उत्प्रेरित हो बड़े सहज भाव से बात करूँ। भोजन करते समय भी आदमी यह सोचे कि मुझे समता का अभ्यास करना है। इसलिए मनोज्ञ भोजन में रागात्मक भाव न आए और अमनोज्ञ भोजन में द्वेषात्मक भाव न आए। आदमी का यह लक्ष्य बन जाए कि मुझे समता का प्रयोग करना है तो वह समता को पुष्ट कर सकता है। यदि लक्ष्य ही न बने, जीवन ढर्रे की तरह चलता रहे तो विकास की कोई विशेष संभावना नहीं रहती। समता में जो सुख है, वह विशिष्ट होता है।
श्रीमद् भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ की बात कही गई है। स्थितप्रज्ञता और समता मुझे एक ही प्रतीत होती हैं। समता है तो स्थितप्रज्ञता है और स्थितप्रज्ञता है तो समता है। दोनों एक ही बात है। जब अर्जुन ने श्रीकृष्ण से प्रश्न किया कि ‘स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशवः’, समाधिस्थ स्थितप्रज्ञ किसे कहते हैं? तब समाधान की भाषा में श्रीकृष्ण ने कहा-
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
हे अर्जुन! जब साधक मनोगत सभी कामनाओं को छोड़ देता है और अपने आपमें संतुष्ट रहता है। वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। जहाँ विषमता है वहाँ पाप है। जहाँ समता है वहाँ धर्म है। अपने आपको यदि प्रसन्न बनाए रखना है तो समता का अभ्यास आवश्यक है। अखंड प्रसन्नता तब प्राप्त होती है जब आदमी राग-द्वेष मुक्त हो जाता है। अनुकूल प्रसंग आने पर राग का भाव नहीं और प्रतिकूल प्रसंग आने पर द्वेष का भाव नहीं, दुःख का भाव नहीं, जब इस भूमिका की प्राप्ति हो जाती है तब आदमी को सतत प्रसन्नता की प्राप्ति हो सकती है। एक राजा अपने गुरु के पास गया और निवेदन किया-गुरुदेव! पूर्व पुण्याई के योग से मुझे सत्ता मिली है किंतु चित्त में शांति नहीं रहती। आए दिन विभिन्न घटना प्रसंग आते रहते हैं। उनसे मन उद्वेलित हो जाता है। आप मुझे कोई ऐसा मार्गदर्शन दें जिससे मैं राज्य का संचालन भी कर सकूँ और शांति के साथ रह सकूँ।
गुरु ने कहा-राजन्! एक मंत्र याद कर लो ‘यह भी बीत जाएगा’। इस एक वाक्य को जीवन में अपना लो, आत्मसात् कर लो, तुम्हें शांति मिल जाएगी। राजा ने यह वाक्य अपनी अंगूठी में अंकित करवा लिया। जब कभी अनुकूलता का प्रसंग आता तो राजा सोचता-मुझे ज्यादा खुशी नहीं मनानी चाहिए क्योंकि यह भी बीत जाएगा। यह बात भी कभी समाप्त हो जाएगी। जब प्रतिकूल प्रसंग आता, राजा सोचता-यह दुःख का प्रसंग भी बीत जाएगा इसलिए मुझे दुःखी नहीं बनना चाहिए। इस प्रकार अभ्यास करते-करते राजा समतावान हो गया। वह तनाव मुक्त भी हो गया और सहज प्रसन्नता की स्थिति भी प्राप्त हो गई।
आवश्यक निर्युक्ति में बताया गया-
जो न विवट्टइ रागे नवि दोसे दोण्ह मज्झयारम्मि।
सो होइ उ मज्झत्थो सेसा सव्वे अमज्झत्था।।803।।
जो न राग में वर्तन करता है और न द्वेष में वर्तन करता है, दोनों से स्पृष्ट न होकर मध्य में रहता है, वह मध्यस्थ होता है। शेष सभी अमध्यस्थ होते हैं। सामायिक शब्द का एक निरुक्त है, जिसमें सम-मध्यस्थ भाव की आय यानी उपलब्धि होती है, वह सामायिक है। सामायिक से सावद्ययोग की विरति होती है। इस पवित्र अनुष्ठान को करने से आदमी बहुत पापों से बच जाता है और आत्म-कल्याण के पथ पर अग्रसर हो जाता है।

खाद्य-संयम
भोजन जीवन की एक अनिवार्यतम अपेक्षा है। शरीर को टिकाए रखने के लिए हर आदमी को भोजन करना होता है। भोजन करना एक बात है। विवेकपूर्ण भोजन करना दूसरी बात है।
प्रश्न होता है कि भोजन कैसा होना चाहिए? आयुर्वेद में समाधान दिया गया-मित, हित और ऋत भोजन होना चाहिए। प्रश्न हुआ-मिताहार क्या है? यह व्यक्तिसापेक्ष प्रश्न है। एक व्यक्ति दो हलकी-फुलकी चपातियाँ भी नहीं खा सकता और एक व्यक्ति बीस फुलके खा लेता है। वह एक दिन नहीं प्रतिदिन खाता है, किसको मित आहार मानें और किसको अमित आहार? हमें एक कसौटी निश्चित करनी होगी।
कसौटी यह है-भोजन के बाद शरीर में भारीपन न आए, शरीर हलका बना रहे। इंद्रियाँ प्रसन्न रहे, मन प्रसन्न रहे, चिंतन स्वस्थ रहे, सोचने की शक्ति, काम करने की शक्ति बनी रहे तो मानना चाहिए कि भोजन परिमित हुआ है। यदि भोजन के बाद सोना पड़े, सारी शक्तियाँ कुंठित हो जाएँ तो मानना चाहिए कि भोजन परिमित नहीं हुआ है। यह एक कसौटी है, जिसके आधार पर प्रत्येक व्यक्ति यह जान सकता है कि मैं परिमित खा रहा हूँ या अपरिमित?
चिकित्सक ने ग्रामीण किसान को सलाह दी-भोजन करते समय पानी पीना हो तो भोजन के बीच में पानी पीना चाहिए। पहले भी नहीं और भोजन के तत्काल बाद भी नहीं। किसान ने इस बात को पकड़ लिया। एक दिन उसने तीन-चार बाजरे की मोटी-मोटी रोटियाँ खा ली। उसके बाद याद आया-अरे! आज बीच में पानी तो पीया ही नहीं। पत्नी से कहा-‘पानी लाओ।’
‘आपने भोजन कर लिया। अब भोजन के बाद पानी पीना नहीं है।’
‘नहीं, तुम पानी लाओ।’
पत्नी पानी ले आई। उसने पानी पीया और बोला-‘तीन-चार रोटियाँ फिर ले आओ। पानी भोजन के बीच में हो जाएगा।’
तीन-चार रोटियाँ पहले खा ली, तीन-चार रोटियाँ बाद में खा ली। हम इसको मिताहार कहें या अमिताहार?
(क्रमशः)