संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
ज्ञेय-हेय-उपादेय
भगवान् प्राह
 
(28) विशुद्ध्यै कृतदोषाणां, प्रायश्चित्तं विधीयते।
आलोचनं भवेत्तेषां, गुरोः पुरः प्रकाशनम्।।
 
किए हुए दोषों की शुद्धि के लिए जो क्रिया-अनुष्ठान किया जाता है, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना आलोचना है।
 
(29) प्रमादादशुभं योगं, गतस्य च शुभं प्रति।
क्रमणं जायते तत्तु, प्रतिक्रमणमुच्यते।।
 
प्रमादवश अशुभ योग में जाने पर पुनः शुभ योग में लौट आना प्रतिक्रमण कहलाता है।
 
(30) अभ्युत्थानं नमस्कारो, भक्तिः शुश्रूषणं गुरोः।
ज्ञानादीनां विनयनं, विनयः परिकथ्यते।।
 
गुरु आदि बड़ों के आने पर खड़ा होना, नमस्कार करना, भक्ति-शुश्रूषा करना और ज्ञान आदि का बहुमान करना विनय है।
 
(31) आचार्यशैक्षरुग्णानां, संघस्य च गणस्य च।
आसेवनं यथास्थाम, वैयावृत्त्यमुदाहृतम्।।
 
आचार्य, शैक्ष-नव दीक्षित, रुग्ण, गण और संघ की यथाशक्ति सेवा करना वैयावृत्त्य है।
 
(32) वाचना पृच्छना चैव, तथैव परिवर्तना।
अनुप्रेक्षा धर्मकथा, स्वाध्यायः प×चधा भवेत्।।
 
स्वाध्याय पाँच प्रकार का होता है-(1) वाचना-पढ़ना। (2) पृच्छना-प्रश्न पूछना। 
(3) परिवर्तना-कंठस्थ किए हुए ज्ञान की पुनरावृत्ति करना। (4) अनुप्रेक्षा-अर्थ-चिंतन करना। 
(5) धर्मकथा-प्रवचन करना।
स्वाध्याय और ध्यान परमात्म-प्रकाशन के अनन्यतम अंग हैं। ध्यान जैसे योग का एक अंग है वैसे स्वाध्याय भी। स्वाध्याय ध्यान का प्रवेश-द्वार है। साधक स्वाध्याय से स्वयं की यथार्थता स्वीकार कर लेता है, तब ध्यान में प्रवेश के योग्य हो जाता है। जब तक स्वयं के रूप की स्वीकृति नहीं होती और न यथार्थ बोध होता है तब उसका परमात्मा की दिशा में दौड़ना सार्थक नहीं होता। इसलिए स्वाध्याय को सबने स्वीकृत किया है। कहा है-
 
‘स्वाध्यायात्  ध्यानमध्यास्तां,  ध्यानात्स्वाध्यायमामनेत्।
स्वाध्याय - ध्यानयोगेन,     परमात्मा      प्रकाशते।।’
- योगी स्वाध्याय से विरत हो जाने पर ध्यान करे और ध्यान से विरत हो जाने पर स्वाध्याय का अवलंबन ले। स्वाध्याय और ध्यान की संपदा से परमात्मा प्रकाशित होता है।
स्वाध्याय के जिस भाव से आज हम परिचित हैं, संभवतः आगमकालीन परंपरा से पूर्व वैसा भाव नहीं था। आगमों की रचना और उनके स्थिरीकरण के समय स्वाध्याय का नया अर्थ प्रचलित हो गया। किंतु इसके साथ-साथ मूल हार्द हाथ से छूट गया। अब स्वाध्याय की शास्त्र-ग्रंथ पठन-पाठन की परंपरा तो रही है किंतु जहाँ जीवन परिवर्तन का प्रश्न था, उसमें अंतर नहीं आया। व्यक्ति शास्त्र-स्वाध्याय कर स्वयं में एक तृप्ति अनुभव करने लगा कि मैंने दैनंदिन कार्य का निर्वाह कर लिया। लेकिन स्वाध्याय तप की भावना पूर्ण नहीं हुई। उससे कोई ताप नहीं पहुँचा। स्वाध्याय तप है, ताप है, तो निःसंदेह ताप से कर्मों को पिघलना चाहिए। कालांतर में स्वाध्याय का रूप और भी शिथिल होता चला गया। आगम-मौलिक ग्रंथों का वाचन छूटकर इधर-उधर की चीजें कंठस्थ कर उनके स्मरण को भी स्वाध्याय के अंतर्गत स्थान दे दिया।
शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन सार्थक नहीं है। ऐसा प्रतिपाद्य नहीं है। उनकी उपयोगिता है और वह सिर्फ इतना ही है कि आप उनसे प्रेरणा प्राप्त कर स्वयं अनुभव की दिशा में पद-विन्यास करें। सिर्फ जाने-माने नहीं किंतु निदिध्यासन करें। इस सदी के पश्चिम के महान् साधक ‘जार्ज गुरजिएफ’ ने एक जगह जान-बूझकर कहा है-‘सबके भीतर आत्मा नहीं है। जो आत्मा को पैदा कर ले, उसी के भीतर आत्मा है। जिन लोगों ने समझाया, सबके भीतर आत्मा है, उन लोगों ने जगत् की बड़ी हानि की है।’ मनुष्य ने मान लिया कि ‘मैं आत्मा हूँ’ अब उसे प्रगट करने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। जब तक प्रत्यक्ष नहीं जानो तब तक सिर्फ इतना ही कहो कि-मानता हूँ, जानता नहीं हूँ। जिससे स्वयं के अज्ञान की भी स्मृति बराबर बनी रहे और संभवतः जानने के लिए चरण उद्यत हो जाएँ।’ आचार्य कुंदकुंद ने लिखा है-‘शास्त्र ज्ञान नहीं है, क्योंकि वे कुछ जानते नहीं हैं। इसलिए ज्ञान अन्य है और शास्त्र अन्य हैं।’ शास्त्र सिर्फ संकेत है, उन सत्यद्रष्टा ऋषियों के दर्शन का। वह हमारा दर्शन नहीं है।
स्वाध्याय के पाँच प्रकार हैं-(1) वाचना (पढ़ना), (2) पृच्छना, (3) परिवर्तना (याद किए हुए पाठ को दोहराना), (4) अनुप्रेक्षा (चिंतन), (5) धर्मकथा।
शिष्य ने पूछा-भंते! स्वाध्याय का फल क्या है?
गुरु ने कहा- स्वाध्याय से ज्ञानावरण कर्म क्षीण होता है। उससे अनेक लाभ संपन्न होते हैं।
स्वाध्याय का पहला लाभ है-
हम कुछ समय तक बाह्य दुनिया से अलग-थलग हो जाते हैं। मन को कुछ क्षणों के लिए उसमें उलझा देते हैं ताकि वह अपनी पुरानी स्मृतियों का ताना-बाना न बुने। यह अस्थायी चिकित्सा है, स्थायी नहीं। इसमें व्यक्ति पूर्णतया स्मृतियों, कल्पनाओं तथा संवेदनाओं से मुक्त नहीं होता।
स्वाध्याय का दूसरा लाभ है-
वाचना, पृच्छना, परिवर्तना आदि से व्यक्ति बाह्य जानकारियाँ अधिक संगृहीत कर लेता है। 
उसके जानकारी का कोश बहुत अधिक बढ़ जाता है। जो ज्ञान नहीं होने वाला था वह हो जाता 
है। लेकिन इसका खतरा यह होता है कि व्यक्ति स्वयं में रिक्त होते हुए भी अपने को भरा हुआ समझने लगता है।
(क्रमशः)