मोक्ष मार्ग की ओर प्रशस्त होने के लिए संवर की साधना कर निर्जरा करें: आचार्यश्री महाश्रमण
अभातेयुप द्वारा अलंकरण-पुरस्कार सम्मान समारोह का आयोजन
नंदनवन, 26 अक्टूबर, 2023
जिनशासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने निग्र्रन्थ प्रवचन का रसास्वाद कराते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में भूगोल संबंधी प्रश्न किया गया है कि भंते! कर्म-भूमियाँ कितनी प्रज्ञप्त हैं? जैन वाङ्मय के भौगोलिक स्थिति में कर्मभूमि-अकर्मभूमि की बात आती है। उत्तर दिया गयाµगौतम! पंद्रह कर्म-भूमियाँ प्रज्ञप्त हैंµपाँच भरत क्षेत्र, पाँच ऐरावत क्षेत्र और पाँच महाविदेह क्षेत्र।
हम जहाँ रह रहे हैं, वह जम्बूद्वीप का एक भरत क्षेत्र है। प्रश्न होता है कि कर्मभूमि संज्ञा क्यों दी गई है? बताया गया है कि ये भूमियाँ ऐसी हैं कि जहाँ शुभ कर्म और अशुभ कर्मों का अर्जन होता है, इसलिए वे कर्म भूमियाँ कहलाती हैं। प्रश्न ये भी हो सकता है कि इनके सिवाय के क्षेत्रों में कर्म का बंध नहीं होता है क्या? प्रकृष्ट रूप से कर्मों का बंध इन कर्म-भूमियों में होता है, वैसे अन्य भूमियों के जीव भी कर्म-बंध करते हैं।
सातवें नरक में जाने वाले अशुभ कर्मों का बंध करने वाले इन भरत आदि क्षेत्रों में होते हैं। सर्वार्थ सिद्ध देवलोक में जाने वाले मनुष्य भी यहाँ ही होते हैं। उत्कृष्ट सबसे ज्यादा दुःख वाला स्थान सातवाँ नरक है, तो उत्कृष्ट सुख-वैभव प्राप्त करने वाला स्थान सर्वार्थ सिद्ध विमान है। सातवीं नरक में भी उत्कृष्ट आयुष्य 33 सागरोपम का होता है, तो वह सर्वार्थ विमान में भी होता है। उत्कृष्टता के कारण ये कर्म-भूमियाँ कहलाती हैं।
असि, मसि, कृषि, विद्या और वाणिज्य रूप छ कर्मों की स्थिति इन कर्म-भूूिमयों में ही होती है। जितने तीर्थंकर होते हैं, वे इन्हीं कर्म-भूमियों में ही होते हैं। साधु भी यही होते हैं। इनको साधना भूमि भी कहा जा सकता है। आचार्यµउपाध्याय, श्रमणोपासक भी इन्हीं कर्म-भूमियों में ही होते हैं।
अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल के हिसाब से स्थिति में थोड़ा फर्क है। पाँच महाविदेह अलग है और पाँच ऐरावत, पाँच भरतµये दस क्षेत्र अलग तरह के होते हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्र में हमेशा तीर्थंकर नहीं रहते, समय-समय पर ही तीर्थंकर होते हैं, जबकि महाविदेह में मेशा तीर्थंकर विद्यमान रहते हैं। भरत और ऐरावत में 24-24 तीर्थंकर होते हैं, जबकि महाविदेह क्षेत्र में कम से कम 20 और उत्कृष्ट 160 तीर्थंकर हो सकते हैं।
हमारे भारत क्षेत्र में वर्तमान अवसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ और अंतिम 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर हुए हैं। महाविदेह के तीर्थंकर पाँच महाव्रत और सप्रतिक्रमण की बात नहीं कहते। वहाँ चतुर्याम धर्म की बात बताई गई है। भरत और ऐरावत क्षेत्र में भी प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय पाँच महाव्रत और सप्रतिक्रमण की बात की प्रज्ञपन्ना करते हैं। बीच के 22 तीर्थंकर महाविदेह की शैली से चलते हैं। चतुर्याम धर्म पालने वाले होते हैं।
हमें वर्तमान में कर्म-भूमि में जीवन जीने का अवसर प्राप्त है। कर्म-भूमि में धर्म-साधना अच्छी हो सकती है। पाप भी होते हैं। वर्तमान में यहाँ तीर्थंकर नहीं है। कुछ वर्षों बाद पुनः यहाँ भगवान महावीर की तरह तीर्थंकर होने वाले हैं।
श्रमणोपासक भी देवगति में जाने वाले होते हैं। पर अगर उनके आचार ढीले हो गए, दोषों की आलोयणा-प्रतिक्रमण नहीं किया तो वे देवगति में नीचे के देव के रूप में उत्पन्न हो सकता है। हम धर्म का कर्म अच्छा करें। संवर की साधना कर निर्जरा भी करें और मोक्ष गति को प्राप्त करें।
अभातेयुप के तत्त्वावधान में अलंकरण-पुरस्कार सम्मान समारोह का आयोजन पूज्यप्रवर की सन्निधि में हुआ। राष्ट्रीय अध्यक्ष पंकज डागा ने अलंकरण-पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं के बारे में बताया। ‘युवा गौरव अलंकरण’ चेन्नई से भरत मरलेचा को प्रदान किया गया। ‘आचार्य महाश्रमण युवा व्यक्तित्व पुरस्कार’ अहमदाबाद के धवल डोसी को प्रदान किया गया।
युवा गौरव प्रशस्ति पत्र का वाचन रमेश डागा ने किया। आचार्य महाश्रमण युवा व्यक्तित्व प्रशस्ति पत्र का वाचन जयेश मेहता ने किया। भरत मरलेचा एवं डाॅ0 धवल डोसी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की।
पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया। अरविंद डोसी ने सपत्नीक पूज्यप्रवर से अब्रह्मचर्य सेवन के प्रत्याख्यान लिए। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।