जीवन के आधारभूत तत्त्व हैं-आत्मा और शरीर: आचार्यश्री महाश्रमण
नंदनवन, 6 नवंबर, 2023
अर्हत् वाणी के उद्गाता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भगवती सूत्र के पच्चीसवें शतक की विवेचना करते हुए फरमाया कि हमारे जीवन में आत्मा तो महत्त्वपूर्ण और मूल तत्त्व है ही, उसके साथ शरीर, वचन और मन भी जुड़ा हुआ है। शरीर न हो तो वचन और मन भी नहीं हो सकता। ऐसा तो हो सकता है कि किसी प्राणी के शरीर तो है, पर वचन या मन न भी हो।
मन और वाणी का शरीर आश्रय होता है। शरीर है तो द्रव्य इंद्रियाँ हैं। यहाँ प्रश्न किया गया है कि योग कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? जीवन के आधारभूत तत्त्व हैं-आत्मा और शरीर। इनके योग से हमारा सांसारिक जीवन निष्पन्न होता है। संयोग से जो चीज होती है, उसका नाश वियोग से होता है। शरीर आत्मा का वियोग होना मृत्यु है। हमेशा के लिए सभी शरीरों का आत्मा से वियुक्त हो जाना, वह मोक्ष हो जाता है।
जीवन है तो शरीर, मन और वाणी की प्रवृत्ति भी होती है। योग तीन हो जाते हैं-शरीर, वाणी और मन। सबसे कम मन वाले प्राणी, उससे अधिक वचन योग वाले प्राणी होते हैं। काययोग तो संसारी प्राणियों के सभी के होता ही है। चैदहवें गुणस्थान की बात अलग है। वह तो अयोगी अवस्था है।
योग पंद्रह प्रकार के बताए गए हैं। मन योग के चार वचन योग के चार और काय योग के सात प्रकार होते हैं। योग विकास का सूचक है। मनुष्यों के सभी योग हो सकते हैं। इसलिए हम दुनिया के सबसे विकसित प्राणी हैं। धातव्य यह कि हमारे मन और शरीर योग का हम उपयोग कैसा करते हैं।
योग एक उपलब्धि है। अपने आपमें योग न शुभ है, न अशुभ है। योग तो नामकर्म का उदय और अंतराय कर्म के विलय से निष्पन्न होने वाली चीज है। मोहनीय कर्म के उदय से योग अशुभ हो जाता है और मोहनीय कर्म के विलय से योग शुभ हो जाता है। आचार्य भिक्षु ने कहा है-उजला नै मैला कहया जोग, मोह कर्म संजोग-विजोग। पानी के तीन ग्लास के उदाहरण से समझाया।
पंद्रह योगों में शुभ-अशुभ दोनों आ जाते हैं। हम ध्यान दें कि हम योग के साथ मोह कर्म को जितना टाला जा सके दूर रखने का प्रयास करें। यह अध्यात्म की साधना हो जाती है।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने कहा कि शांत सहवास के लिए हमें वाणी पर नियंत्रण करना होगा। आवश्यक बात बोलें, वरना मौन रहें। अनावश्यक न बोलें। ऊँची भाषा बोलें। कटुतारहित भाषा बोलें। मीठी और मैत्रीपूर्ण भाषा बोलें।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।