शुभ लेश्या और शुभ योग में रहकर अपनी भावधारा निर्मल रखें : आचार्यश्री महाश्रमण
नंदनवन, 3 नवंबर, 2023
आज साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी का बारहवाँ दीक्षा दिवस है। लगभग ग्यारह वर्ष पूर्व जसोल चातुर्मास-2012 में पूज्यप्रवर द्वारा दीक्षित हुई थी। वर्तमान में आप परम पावन की निश्रा में साध्वीवर्या पद पर अपनी सेवाएँ धर्मसंघ को दे रही हैं। जीवन नैय्या के खेवनहार आचार्यश्री महाश्रमण जी ने आगम वाणी का रसास्वाद करवाते हुए फरमाया कि जैन दर्शन में आत्मवाद का सिद्धांत है। जो जैन वाङ्मय का मुख्य सिद्धांत है। अनेक विचारधाराएँ भी आत्मा-पुनर्जन्म को मानने वाली हो सकती हैं। जैन दर्शन में आत्मा का विभन्न संदर्भों में वर्णन प्राप्त होता है। भगवती सूत्र तो मुख्य आधार है जैन आगम तत्त्वज्ञान, आत्मा के संदर्भ में और आत्मा से जुड़े हुए अनेक विषय हैं।
आत्मा से जुड़ा हुआ एक विषय है-लेश्यावाद। आत्मा है, तो आत्मा के साथ कर्मवाद की बात है। लेश्यावाद की अवधारणा है कि संसारी प्राणी मोक्ष जाने के अंतिम समय में अलेश्य स्थिति में पहुँच जाता है। बाकी संसारी प्राणी किसी न किसी लेश्या में रहते हैं। लेश्यायुक्त रहता है। जैन तत्त्व दर्शन में योग और लेश्या ये दो चीजें आती हैं। शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति यह योग है। लेश्या परिणाम धारा है। भाव लेश्या ही परिणामधारा है। लेश्या और योग मानो ये घनिष्ठ मित्र हैं। जहाँ लेश्या है, वहाँ योग है। जहाँ-जहाँ धुआँ है, तो वहाँ अग्नि भी है। पर जहाँ-जहाँ अग्नि है, वहाँ धुआँ हो ही जरूरी नहीं है। धुम्र रहित अग्नि हो सकती है। पर योग लेश्या के बारे में ये बात नहीं है। जहाँ-जहाँ योग या लेश्या है, वहाँ लेश्या या योग होगा ही। दोनों में साहचार्य है। योग या लेश्या एक-दूसरे को छोड़ते नहीं हैं। जैसे तेरहवें गुणस्थान का केवली।
पूर्णतया अयोग अवस्था तो चैदहवें गुणस्थान में ही आती है, बाकी पहले गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक योग व लेश्या रहते हैं। लेश्याएँ छः बताई गई हैं। कृष्ण, नील, कापोट ये तीन लेश्याएँ अधर्म-अशुभ लेश्याएँ हैं। तेज, पदम और शुक्ल लेश्या धर्म-शुभ लेश्याएँ हैं। कृष्ण लेश्या से कम खराब नील लेश्या है, इस तरह उत्तरोत्तर लेश्याएँ बढ़िया होती रहती हैं। क्रमशः विकास है। हमारी भावधारा अच्छी रहे, हम शुक्ल लेश्या में रहें।
जिस लेश्या में आदमी मरता है, उसी लेश्या में आगे पुनः जन्म लेता है। लेश्याओं का भी नियम है कि किस जीव में कितनी लेश्याएँ होती हैं। द्रव्य लेश्या की अपेक्षा से है। मनुष्य में छहों लेश्याएँ होती हैं। आचार्यश्री भिक्षु ने तो भगवान महावीर जब छद्मस्थ काल में थे तो उनमें भी छहों लेश्याएँ मान्य की थी। ऐसी तेरापंथ की मान्यता है। किसी सिद्धांत के संदर्भ में बताई गई है। शुभ लेश्या और शुभ योग में हम रहें। हम भावधारा को निर्मल रखें, यह हमारे लिए काम्य है। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी के भी तीन पर्याय-समणी पर्याय, साध्वी पर्याय और साध्वीवर्या पर्याय हो जाते हैं। साध्वीवर्या भी खूब धर्मसंघ की सेवा करती रहे। लेश्या व योग शुक्ल बना रहे।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने कहा कि लक्ष्य हमारा ऊँचा होना चाहिए। वह लक्ष्य हो जा हमें परमार्थ की ओर ले जाने वाला हो। हमें उदितोदित विकास करते रहना है। ऐसे मनुष्य अपने कृतत्व से महान माने जाते हैं। हमारे भीतर के दुर्गुणों को हम त्यागें और सद्गुणों में आगे बढ़ते जाएँ। हमारी आंतरिक जागरूकता रहे। आत्मा, संयम और परमात्म पद के लिए हमारे में सजगता रहे।