उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)
ऋत भोजन
ऋत भोजन क्या है? इसका शाब्दिक अर्थ है सत्य भोजन। यानी ईमानदारी से, सचाई से अथवा श्रम से उपार्जित पैसे से प्राप्त होने वाला भोजन। बेईमानी से प्राप्त अन्न को अचछा नहीं माना गया है। दूसरों का खून चूसकर जो व्यक्ति पैसा कमाता है, उसकी स्वयं की आत्मा तो भीतर से कचोटती ही है औरों की दृष्टि में भी वह अच्छा नहीं समझा जाता। कहा भी जाता है कि नीति का पैसा बरकत करता है। श्रावक के लिए आगम में एक विशेषण आता है-‘धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा’-धर्म से आजीविका चलाने वाला श्रावक होता है। गृहस्थ साधु की तरह अपरिग्रही नहीं बन सकता, माँग कर नहीं खा सकता, किंतु अर्जन के साथ साधनशुद्धि का विचार जुड़ना चाहिए। साधनशुद्धि से उपार्जित वैभव से आजीविका चलाने वाला व्यक्ति शांति और सम्मान का जीवन जीता है। इस प्रकार मित भोजन, हित भोजन और ऋत भोजन-ये तीन सूत्र भोजन के साथ जुड़ जाएँ तो शारीरिक, मानसिक और भावात्मक स्वस्थता बनी रहेगी।

वाणी-संयम
आराधना का एक त्रिकोण है-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति। जो साधना करना चाहता है, उसे इस त्रिकोण की आराधना करनी होती है। इनमें से किसी को छोड़कर साधना नहीं की जा सकती। मन, वाणी और शरीर-इनमें से किसी को नहीं साधा तो आराधना नहीं हो सकती। मन की एकाग्रता के लिए भी शरीर और वाणी को साधना अपेक्षित है। भाषा बाह्य जगत् और अंतर्जगत् का सेतु है। यदि वाणी नहीं होती तो प्रत्येक व्यक्ति अंतर्जगत् में रहता, वह कभी बाह्य जगत् से संपृक्त नहीं होता। संपर्क का शक्तिशाली माध्यम है-भाषा।
साधना का सूत्र है वाक् संयम और संपर्क का सूत्र है भाषा का प्रयोग।
निश्चित नयः व्यवहार नय
भगवान् महावीर ने सचाई को जानने के लिए दो नयों का प्रतिपादन किया-व्यवहार नय और निश्चय नय। यदि स्थूल बात को पकड़ना है तो व्यवहार नय को काम में लो। यदि वास्तविकता तक पहुँचना है तो निश्चय नय का प्रयोग करो। वाक् संयम का स्थूल पक्ष क्या है और वास्तविक पक्ष क्या है? निश्चय नय का पहला सूत्र है-मत बोलो, मौन रहो। प्रश्न हुआ-न बोलने से काम नहीं चलेगा। तब कहा गया, समाधान हो उतना बोलो। व्यवहार नय का सूत्र इससे विपरीत होगा। उसका सूत्र है-बोलो। समस्या प्रस्तुत हुई-यदि व्यक्ति बोलता रहेगा तो मस्तिष्क बिगड़ जाएगा, शक्ति क्षीण होगी। यदि व्यकित सारे दिन बोलता चला जाए तो काम नहीं चलेगा। कहा गया-आवश्यकता से अधिक मत बोलो। निश्चय नय का दूसरा सूत्र है-जितना आवश्यक है, उतना बोलो। व्यवहार नय का दूसरा सूत्र है-अनावश्यक मत बोलो। ये दोनों अवधारणाएँ भिन्न हैं।
किससे बोलूँ
जो व्यक्ति अध्यात्म की साधना करेगा, उसकी गहराई में जाएगा, उसके मन में प्रश्न होगा-केन ब्रवीम्यहं-मैं किससे बोलूँ, क्यों बोलूँ? मैं जिससे बोलता हूँ, वह मुझे नहीं जानता और जो मुझसे बोलता है, मैं उसे नहीं जानता। मैं अनजान व्यक्ति के साथ क्या बोलूँगा? यदि मुझे कोई जानता है तो मैं उसके साथ बात करूँ। जो जानता है, वह बोलता नहीं और जो बोलता है, वह जानता नहीं।
अध्यात्म जगत् में बोलने का अवकाश ही नहीं है। पहुँचे हुए संत मिले, घंटों तक आमने-सामने बैठे रहे और फिर उठकर अपने-अपने स्थान पर चले गए। शिष्यों ने गुरु से कहा-हमने सोचा था, आज दो महान् संत मिले हैं, कुछ अच्छी चर्चा सुनने को मिलेगी। आपने तो कोई बात नहीं की। संत ने मुस्कराते हुए कहा-जो मैंने कहा, वह उसने समझ लिया। जो उसने कहा, वह मैंने समझ लिया। बोलने की जरूरत ही नहीं पड़ी।
बोलने की अपेक्षा व्यवहार जगत् में होती है। जहाँ स्थूल जगत् की यात्रा है वहाँ भाषा की उपयोगिता है। जहाँ आत्मा से आत्मा का मिलन होता है, वहाँ भाषा मौन हो जाती है। जहाँ बाहर से बाहर का मिलन होता है, वहाँ भाषा मुखर बन जाती है।
अपेक्षित है वाक् संयम
हम न बोलें, इस पर एकांततः बल नहीं दिया जा सकता। किंतु वाक् संयम का अभ्यास करें, यह अवश्य अपेक्षित है। एक गृहस्थ के लिए बिलकुल मौन रहना संभव नहीं है और एक मुनि के लिए भी यह संभव नहीं होता। भगवान् महावीर ने बारह वर्ष साधना की, प्रायः मौन रहे। कैवल्य उपलब्धि के पश्चात् बहुत प्रवचन किए। बुद्ध ने भी यही किया। जितने महापुरुष हुए हैं, उन्होंने मौन की साधना भी की और वाणी का प्रयोग भी किया। निरंतर मौन रहना यह न हमारा पक्ष है, न स्थापना है और न हम उसकी उपयोगिता को मानते हैं। जिस व्यक्ति को केवल हिमालय की गुफा में बैठना है, केवल एकांत का जीवन जीना है, हो सकता है कि वह न बोले। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि हिमालय की गुफा में बैठने वाला मौन रहता है। वह वाणी का स्पष्ट उच्चारण न करे किंतु सोचे, स्मृति या कल्पना करे तो वह भी बोलना है। भाषा का जो विकास हुआ है, उसे हम कैसे रोक पाएँगे?
सम्यग् प्रयोग
केवल मौन, न बोलना सामाजिक विकास के लिए ही नहीं, आत्मिक विकास के लिए भी बहुत सहायक नहीं बनता। प्रश्न हो सकता है-क्या हम बोलते ही चले जाएँ? यह भी अच्छा नहीं है। यदि हम निरंतर बोलेंगे तो मिथ्यावचन से बच नहीं पाएँगे। न मौन और न निरंतर भाषण। हमारे लिए करणीय कार्य है वाणी का समय। बोलना भी है और उसका संयम भी करना है। न एकांत मौन और न एकांत वाचालता। मध्यम मार्ग है वाक् संयम।
वाणी का संयम वह है, जिसमें वाणी का सम्यक् प्रयोग हो, मिथ्या प्रयोग न हो। वाणी का सम्यक् प्रयोग वह है, जिसमें बोलने के साथ क्रोध न हो। जो वचन निकल रहा है, वह क्रोध से लिपटा हुआ है तो वाणी का सम्यक् प्रयोग नहीं हैं जो वचन निकले, वह माया से आवृत्त न हो, मान से भरा हुआ न हो, लोभ से जुड़ा हुआ न हो। क्रोध-मिश्रित, माया-मिश्रित और लोभ-मिश्रित न हो। जो इन कषायों से मुक्त वचन है, वह वाणी का सम्यक् प्रयोग है।
मौन ही सार्थक है
व्यक्ति एक घंटा मौन का संकल्प लेता है। एक घंटा नहीं बोलना है, यह लक्ष्य होता है। लक्ष्य यह होना चाहिए-वाक् संयम की साधना करनी है। व्यक्ति यह संकल्प करे-एक घंटा वाणी का संयम करूँ। जब भी बोलने का प्रसंग आए, क्रोध, मान, माया और लोभ रहित वचन का प्रयोग करूँ। व्यक्ति एक घंटा मौन रहा। जब मौन खुले तब मिथ्या-वाणी का प्रयोग करे तो पाँच मिनट में ही मौन की कसर निकल जाती है। केवल एक घंटा, दो घंटा न बोलना ही मौन नहीं है। मौन वह है, जिससे वाक् संयम की प्रेरणा मिले, वाणी के सम्यक् प्रयोग की चेतना जागे। मौन वही सार्थक है, जो संयम से अनुप्राणित है।
ऐसा मौन न करें
प्राचीन समय की घटना है। साधुओं की जमात गाँव के बाहर ठहरी। कुछ साधु गाँव में गए। ग्रामवासियों ने साधुओं का अभिवादन किया। साधु बोले-हम गाँव के बाहर ठहरे हैं। हमारे भोजन की व्यवस्था करनी है। लोगों ने विनम्रतापूर्वक कहा-महाराज! व्यवस्था कर रहे हैं। एक घंटा बीत गया। साधु पुनः गाँव में आए। लोगों से पूछा-क्या व्यवस्था हो गई?
‘महाराज! अभी नहीं हुई, समय लगेगा।’
‘अभी समय लगेगा?’
‘हाँ महाराज! गाँव का काम है। सब पंच मिलते हैं, निर्णय करते हैं फिर व्यवस्था होती है। इसमें समय तो लगता है।’
दो घंटा बीत गए। व्यवस्था नहीं हो पाई। साधु रोष से भर उठे। गाँव में आए और छप्परों को तोड़ना शुरू कर दिया। लोग घबराए स्वर में बोले-‘महाराज! आप यह क्या कर रहे हैं? हम व्यवस्था कर रहे हैं और आप छप्पर तोड़ रहे हैं? क्या आपने गुरुजी से पूछ लिया?’
‘हाँ! पूछ लिया।’
‘गुरुजी ने क्या कहा?’
‘कहा तो कुछ नहीं।’
‘फिर आप कैसे तोड़ रहे हैं?’
‘गुरुजी के मौन है। हमने कहा-हम छप्पर तोड़ रहे हैं तब गुरुजी ने ‘हूँ’ कहकर स्वीकृति दे दी।’
लोग यह सुनकर स्तब्ध रह गए। एक व्यक्ति बोल उठा-
मुनि मौन फारसी भणे, हुंकारै खट काया हणै।
अणबोल्या ही उद्धम करै, बोल्या तो कै जुल्म करै।।
प्रियकर: हितकर
हम ऐसा मौन न करें। एक घंटा का भी मौन करें तो ऐसा करें, जिसमें मन और वचन का संयम हो। मौन के समय शांत रहें और यह संकल्प करें-भविष्य में कटु वचन नहीं बोलूँगा, अप्रिय और अहितकर वचन नहीं बोलूँगा। कहा गया-
‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात मा ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।’
सत्य बोलो, प्रिय बोलो। इसके स्थान पर यह कहना अधिक संगत प्रतीत होता है-सत्य बोलो, हितकर बोलो। एक बात प्रिय है किंतु हितकर नहीं है तो वह प्रिय भी काम की नहीं है। अनेक व्यक्ति बहुत मीठी, चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं। उससे हित नहीं सधता किंतु व्यक्ति भुलावे में पड़ जाता है। वह प्रिय होते हुए भी हितकर नहीं है। सबसे पहले व्यकित यह सोचे कि मैं जो कह रहा हूँ, वह हितकर है या नहीं? यह संभव है कि जो हितकर है, वह प्रिय न लगे। हितकर बात सबको प्रिय लगे, यह आवश्यक भी नहीं है। हित की बात बहुत बार अप्रिय लग सकती है।
एक माँ अपने पुत्र से कहती है-तुम ज्यादा मिठाई मत खाओ। इतनी टाॅफियाँ मत खाओ। क्या यह बात बच्चे को प्रिय लगती है? यह बात प्रिय नहीं, किंतु हितकर है। जो हितकर होता है, उसका परिणाम अच्छा होता है। जो प्रियकर होता है उसका परिणाम अच्छा हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता।
(क्रमशः)