अवबोध

स्वाध्याय

अवबोध

कर्म बोध
बंध व विविध

प्रश्न 22 : शुभ कर्म को कैसे तोड़ा जा सकता है?
उत्तर : शुभ कर्म को तोड़ने का वैसे कोई प्रशस्त साधन नहीं है। केवली समुद्घात के समय ही शुभ कर्म तोड़े जाते हैं। यदि पुण्य भोगने में आसक्ति नहीं रहती, तो पुण्य भोगने में पाप का बंध नहीं होता। अशुभ प्रवृत्ति से पुण्य का क्षय तीव्रता से होता है, पर उसी के साथ पाप का बंध भी उतनी ही तीव्रता से होता है, अत: आत्मा हल्की नहीं हो पाती।

प्रश्न 23 : मात्र छह आवलिका स्थिति वाले दूसरे गुणस्थान में आयुष्य का बंध हो सकता है, पर अंतर्मुहूत्र्त स्थिति वाले तीसरे गुणस्थान में नहीं हो सकता, यह क्यों?
उत्तर : प्रतिपाती सम्यक्त्वी जीव दूसरे गुणस्थान का स्पर्श करता है। उसका गिरना नियति है। यह कोई अनिश्चय की स्थिति नहीं है। तीसरे गुणस्थान में संशय की स्थिति रहती है। आयुष्य का निर्धारण स्वयं में एक निश्चय है। यह अनिश्चय व संशय की स्थिति में नहीं होता, इसलिए तीसरे गुणस्थान में आयुष्य का बंध नहीं होता।

प्रश्न 24 : क्या छद्मस्थ अकषायी होता है?
उत्तर : छद्मस्थ सकषायी व अकषायी दोनों होते हैं। पहले से दसवें गुणस्थान तक जीव सकषायी छद्मस्थ व ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में अकषायी छद्मस्थ होता है।

प्रश्न 25 : वीतराग कौन होता है?
उत्तर : जिसने राग व द्वेष को जीत लिया है वह वीतराग होता है। वीतराग में अंतिम चार गुणस्थान होते हैं। अकषायी, वीतराग पर्यायवाची शब्द हैं। ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में छद्मस्थ वीतराग व तेरहवें, चैदहवें गुणस्थान में केवली वीतराग होते हैं।

(क्रमश:)